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में अद्वैत की अवधारणा समन्वय की साधना ही है। ऋग्वेद में ग्रहण कर लेता है तो दूसरी ओर एक मिथ्यादृष्टि व्यक्ति कहा ही गया है
सम्यक्-श्रुत में भी बुराई या कमियां देख सकता है। (नन्दी एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति।
सूत्र 42) शास्त्र एवं शब्द जड़ हैं, उससे जो अर्थबोध किया एकं देवो बहुधा कल्पयन्ति।।
जाता है, वही महत्त्वपूर्ण है। यह अर्थबोध की प्रक्रिया साधक अबैत शायद समन्वय की पराकाष्ठा है. क्योंकि एक का दृष्टि पर निभर करता है। में सबों का समन्वय है-एकमेवाद्वितीयम्।
धार्मिक असहिष्णुता का बीज रागात्मकता या अपनी जहां तक जैन .
धर्म पद्धति को या अपने धर्म विचारधारा का प्रश्न है उसने
गुरु को अंतिम मानने में है। भी समन्वय की साधना में
इसी से कदाग्रह एवं धार्मिक असहिष्णुता का बीज रागात्मकता अद्वैत एवं विभज्यवाद की तरह या अपनी धर्म पद्धति को या अपने धर्म
असहिष्णुता का बीज बढ़ता है।
भगवान महावीर के प्रथम अनेकांत का आविष्कार किया। गुरु को अंतिम मानने में है। इसी से अनेकांत केवल कोई बौद्धिक कदाग्रह एवं असहिष्णुता का बीज बढ़ता
शिष्य एवं गणधर इंद्रभूति व्यायाम नहीं, एक जीवनदर्शन है। भगवान महावीर के प्रथम शिष्य एवं
गौतम को तब तक कैवल्य की है। यह कोई विकल्पवाद नहीं,
गणधर इंद्रभूति गौतम को तब तक कैवल्य प्राप्ति नहीं हो सकी, जब तक
की प्राप्ति नहीं हो सकी, जब तक वे यह कोई संशयवाद नहीं, इसमें
वे वीतरागता को प्राप्त नहीं कर वीतरागता को प्राप्त नहीं कर सके। तो पूर्णता एवं यथार्थता दोनों
सके। महावीर के प्रति गौतम महावीर के प्रति गौतम का राग उनके हैं। कोई भी व्यक्ति सर्वज्ञ नहीं
का राग उनके कैवल्य का कैवल्य का बाधक है। इस दृष्टि से सोचें हो सकता-सर्वं सर्व न
बाधक है। इस दृष्टि से सोचें तो किसी धर्मपंथ के लोग अपने धर्मगुरु
तो किसी धर्मपंथ के लोग जानाति। फिर प्रकृति का या धर्मपंथ को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं तो यह
अपने धर्मगुरु या धर्मपंथ को रहस्य अत्यंत जटिल रहता है।
अनेकांत की हत्या है। मुझे तो दीक्षा की इसलिए हमें यह अहंकार कभी
सर्वश्रेष्ठ मानते हैं तो यह परिपाटी भी एकांतवाद का स्थूल एवं नहीं करना चाहिए कि हम
अनेकांत की हत्या है। मुझे तो वीभत्स रूप दीखता है। 'पंच णमोकार सब-कुछ जानते हैं। चाहे मंत्र' में किसी व्यक्ति का उल्लेख नहीं,
दीक्षा की परिपाटी भी आत्मा के स्वरूप का प्रश्न हो केवल गुणवाचक है। इसमें संप्रदायवाद
एकांतवाद' का स्थूल एवं या नैतिकता का या शरीर- नहीं है। इस दृष्टि से यह सगुण अनेकांत
वीभत्स रूप दीखता है। 'पंच आत्मा का संबंध, इनके संबंध है। णमो लोए सव्वे साहूणं' सर्वोदय
णमोकार मंत्र' में किसी व्यक्ति में भिन्न दृष्टियां होंगी।
भावना की तरह उदारता की पराकाष्ठा है। का उल्लेख नहीं, केवल आचार्य हरिभद्र ने योगदृष्टि
गुणवाचक है। इसमें समुच्चय में कहा है
संप्रदायवाद नहीं है। इस दृष्टि
से यह सगुण अनेकांत है। ‘णमो लोए सव्वे साहूणं' सर्वोदय चित्रा तु देशनैतेषां स्याद् विनेयानुगुण्यतः।
भावना की तरह उदारता की पराकाष्ठा है। हेमचन्द्र ने य स्यादेते महात्मनो भवव्याधि भिषवराः।।
महादेव स्तोत्र में कहा हैजिस प्रकार एक अच्छा वैद्य रोगी की प्रकृति, ऋतु को ध्यान में रखकर एक ही रोग के लिए दो व्यक्तियों को
ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्यै। अलग-अलग ओषधि प्रदान करता है, उसी प्रकार धर्म
चाहे ब्रह्मा हो, विष्णु हो या महादेव हो या जिन, उन उपदेश भिन्न-भिन्न स्वभाव वाले व्यक्तियों के लिए सभी को प्रणाम। हरिभद्र भी कहते हैंअलग-अलग साधना विधि देते हैं।
सदाशिवः परं ब्रह्म सिद्धात्मा तथतेति च। शास्त्र की सत्यता का प्रश्न भी विवाद खड़ा कर देता
शब्दैस्तद् उच्यतेऽन्वर्थात् एकं एवैवमादिभिः।। है कि मेरा ही धर्मशास्त्र सच्चा धर्मशास्त्र है। एक सम्यक् एक ही तत्त्व है चाहे उसे सदाशिव कहें, परब्रह्म कहें, दृष्टि व्यक्ति मिथ्या-श्रुत से भी अच्छाई और सारतत्त्व सिद्धात्मा कहें या तथागत। नाम को लेकर विवाद जड़ता है।
स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती
मार्च-मई, 2002
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अनेकांत विशेष .99
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