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का निराकरण करता है और अपने ही अधिकार प्रतिष्ठित करता है वह दुर्नय है। दुर्नय स्यात् का तिरस्कार कर निरपेक्षता को अपनाता है। यह अपने पक्ष का आग्रह और पर का विरोध करता है, किंतु सुनय अनेकांतात्मक वस्तु के किसी विशेष अंश को मुख्य भाव से ग्रहण करके भी अन्य अंशों का निराकरण नहीं करता। उनकी ओर तटस्थ भाव रखता है। क्योंकि अनंत धर्मात्मक वस्तु में सभी नय बराबर हैं। इस तरह सभी सापेक्ष नय सुनय और निरपेक्ष नय दुर्नय कहे जाते हैं।
नयवाद या इसके भेद - प्रभेदों आदि के विवेचन प्रसंग में मुख्य, गौण, सामान्य और विशेष—इन शब्दों का काफी प्रयोग होता है। वस्तुतः इन शब्दों पर ही नय, प्रमाण, अनेकांत और स्याद्वाद जैसे दार्शनिक सिद्धांतों का विवेचन आधारित होता है। अतः इन शब्दों का अर्थ समझ लेने से इन जटिल सिद्धांतों को समझ लेने में सरलता होती है। इन शब्दों के क्रमशः यहां तात्पर्यार्थ प्रस्तुत हैं
मुख्य: प्रत्येक पदार्थ में अनेक धर्म या गुण होते हैं। उन अनेक धर्मों में से जिस समय जिस धर्म की विवक्षा होती है, उस समय वही धर्म प्रधान माना जाता है। इस विवक्षित प्रधान धर्म को उस समय मुख्य धर्म कहा जाता है।
गौण : अनंतधर्मात्मक वस्तु में एक साथ सभी धर्मों का कथन तो संभव नहीं है। अतः उनमें से एक बार में एक धर्म का ही कथन संभव है । जिस समय जिस बिवक्षित धर्म का प्रतिपादन किया जा रहा है, उस मुख्य धर्म के अतिरिक्त बाकी सभी धर्म उस समय अविवक्षित होने से 'गौण' कहलाते हैं। अर्थात् जिनकी विवक्षा उस समय न हो, वे गौण होते हैं। यही गौण शब्द का अर्थ है।
सामान्य : जैन दर्शन में वस्तु का लक्षण सामान्यविशेषात्मक माना जाता है। इसमें सामान्य द्रव्य है और उस द्रव्य की पर्याय 'विशेष' कही जाती है। अतः वस्तु के जिस धर्म के कारण अनेक पदार्थ एक जैसे दिखते हों, उसको सामान्य कहते हैं। जैसे अनेक गायों में गोत्व धर्म सामान्य है। विशेष सजातीय और विजातीय पदार्थों से भिन्नता का बोध कराने वाला धर्म 'विशेष' कहा जाता है। नय के भेद
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नय के अनेक तरह से भेद किए गए हैं। सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन दिवाकर ने तो यहां तक कह दिया है कि 'जावइया वयणवहा तावइया चेव होंति णयवाया'अर्थात् जितने वचन विकल्प हैं उतने ही नयवाद हैं।
मार्च मई, 2002
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सर्वार्थसिद्धि में कहा है— 'नय अनंत भी हो सकते हैं, क्योंकि प्रत्येक वस्तु की शक्तियां अनंत हैं अतः प्रत्येक शक्ति की अपेक्षा भेद को प्राप्त होकर नय अनंत विकल्परूप हो जाते हैं। फिर भी मूलरूप में द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक—ये दो नय हैं, क्योंकि वस्तु सामान्यविशेषात्मक होती है। माइल्ल धवल के अनुसार सर्वनयों के मूल निश्चय और व्यवहार—ये दो नय हैं। इनमें निश्चय नय द्रव्याश्रित है और व्यवहार नय पर्यायाश्रित है। जो वस्तु में सामान्य धर्म को मुख्य और विशेष धर्म को गौण करता है, वह द्रव्यार्थिक नय है। इसके विपरीत जो वस्तु के सामान्य स्वरूप को गौण कर विशेष स्वरूप को मुख्यता से ग्रहण करता है, वह पर्यायार्थिक नय है। अर्थात् जो पर्याय को गौण करके द्रव्य का ग्रहण करता है उसे द्रव्यार्थिक नय तथा जो द्रव्य को गौण करके पर्याय को ग्रहण करता है उसे पर्यायार्थिक नय कहते हैं।
वस्तुतः वस्तु द्रव्यपर्यायात्मक या सामान्य विशेषात्मक है। द्रव्य और पर्याय को या सामान्य और विशेष को देखने वाली दो आंखें हैं—द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक । एक दृष्टि से देखना एक देश को देखना है और दोनों दृष्टियों से देखना सब वस्तु को देखना है । इस तरह वस्तु को देखने की ये दो दृष्टियां हैं।
इन्हीं को जब निश्चय तथा व्यवहार नय के नाम से अभिहित करते हैं तब जो अभेद और अनुपचार रूप से वस्तु का निश्चय करते हैं, वह निश्चय नय है तथा भेद और उपचार रूप से वस्तु का व्यवहार करना व्यवहार नय है । माइल्ल धवल ने भी कहा है- 'जो एक वस्तु के धर्मों में कथंचित् भेद व उपचार करता है उसे व्यवहार नय कहते हैं और उससे विपरीत निश्चय नय होता है। निश्चय नय को भूतार्थ और व्यवहार नय को अभूतार्थ कहते हैं। निश्चय न आत्मसिद्धि का हेतु है, अतः जब यह शुद्धात्मा को मुख्यता से विषय करता है, उस समय व्यवहार नय गौण रूप में उपस्थित रहता है। यदि एक नय का व्यवहार करते समय दूसरी नयदृष्टि का सर्वथा परित्याग कर दिया जाए, तो नयज्ञान सुनय कोटि में नहीं आ सकेगा। इस प्रकार नय के अनेक भेद किए गए हैं। किंतु जैनाचार्यों ने मुख्यता से जिन नैगम, संग्रह आदि सात नयों का प्रतिपादन किया है, नयवाद को समझने में बहुत सहयोगी बनते हैं।
जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि विविध दृष्टिकोणों के आधार पर नयों के असंख्यात भेद संभव हैं।
स्वर्ण जयंती वर्ष
जैन भारती
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अनेकांत विशेष • 77
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