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राजमल्लविरचित पंचाध्यायी इत्यादि जैन बांग्मय के इन महान ग्रंथों के साथ ही साथ अनेक अन्यान्य ग्रंथों में भी भी प्रासंगिक रूप में नयवाद का अच्छा विवेचन किया गया है।
यद्यपि विविध विधाओं में विरचित जैन वांग्मय अगाध है, किंतु उपर्युक्त प्रमुख ग्रंथ 'नयवाद, पर आधारित हैं। वस्तुतः नय को समझे बिना जैन आगम का हार्द हृदयंगम होना मुश्किल है। जबकि नय का सम्यक् स्वरूप जानने वालों का उसमें प्रवेश सहज हो जाता है। संपूर्ण मतभेदों को समाप्त करने के लिए नयवाद प्रमुख आधार है। सम्यक ज्ञान के लिए नयविवक्षा अपरिहार्य है। यद्यपि नय विवेचन गूढ़ विषय लगता अवश्य है, किंतु इसमें प्रवेश करते ही इसकी सरल पद्धति का एवं द्रव्यस्वभाव के प्रकाशन हेतु इसकी अनिवार्यता का स्पष्ट अनुभव होता है ।
नय स्वरूप
जैन दर्शन के अनुसार जिन तत्त्वों का श्रद्धान और ज्ञान करके मुमुक्षु मोक्षमार्ग में रत होता है, उन तत्त्वों का अधिगम ज्ञान से होता है। यही ज्ञान अधिगम के उपायों को प्रमाण और नय इन दो रूपों में विभाजित कर देता है। प्रत्येक वस्तु प्रमाण एवं नय का विषय है। अतः अधिगम के उपायों में प्रमाण के साथ नयों का भी निर्देश है ये ही तत्त्वाधिगम के मूल दो भेद हैं।'
यद्यपि प्रमाण और नय— ये दोनों ही ज्ञान हैं, किंतु दोनों में अंतर यही है कि नय वस्तु के एक अंश (धर्म) का ज्ञान कराता है, जबकि प्रमाण वस्तु के संपूर्ण अंश (धर्मों) का । अर्थात् प्रमाण वस्तु के पूर्ण रूप को ग्रहण करता है, जबकि नय प्रमाण द्वारा गृहीत के अंश को ग्रहण करता है। वस्तु इसे इस तरह भी कह सकते हैं कि 'नय' पूर्ण सत्य की एक बाजू को जानने वाली दृष्टि का नाम है। इस तरह कहा जा सकता है कि जिससे वस्तुतत्त्व का निर्णय किया जाता है, उसे सम्यक् रूप से जाना जाता है— उसे प्रमाण कहते हैं तथा ज्ञाता का वह अभिप्राय विशेष 'नय' कहलाता है जो
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2002
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प्रमाण के द्वारा जानी गई वस्तु के एकदेश का स्पर्श करता है। नयज्ञान वस्तु के प्रत्येक अंश का अवबोध करता है। अतः 'नय' विवेचन प्रक्रिया का प्रमाण द्वारा गृहीत वस्तु के अंश को अभिप्राय के अनुसार विश्लेषित करना है।
जैन दर्शन के अनुसार वस्तु का वस्तुत्व भी दो बातों पर आधारित है। प्रथम प्रत्येक वस्तु अपने स्वरूप को अपनाए हुए है और द्वितीय यह है कि प्रत्येक वस्तु अपने से भिन्न अनंत वस्तुओं के स्वरूप को नहीं अपनाए हुए है और तभी उस वस्तु का वस्तुत्व कायम है। यदि ऐसा नहीं माना जाएगा तो वह वस्तु ही नहीं रहेगी। यही कारण है कि घट, घट ही है तथा घट, पट नहीं है। इन दो बातों पर ही घट का अस्तित्व बनता है।' इसे कहते हैं घट है भी और नहीं भी है अपने स्वरूप से 'अस्ति' रूप है और अपने से भिन्न पर - स्वरूप से 'नास्ति' रूप है।
वस्तुतः जैन दर्शन अनेकांतवादी दर्शन है। जैन दार्शनिकों ने अपने अनेकांतवादी दृष्टिकोण का प्रतिपादन स्याद्वाद शैली में किया है। स्याद्वाद शैली में नयों का प्रयोग किया जाता है, जो वस्तु के एक एक अंश को विषय बनाते हैं।
जैन दर्शन केवल भावना और विश्वास की भूमि पर खड़ा होकर मात्र कल्पनालोक में विचरण नहीं करता और न ही यह वस्तुवाही दृष्टिकोणों का तिरस्कार ही करता है यह तो अनंत गुण पर्यायात्मक वस्तु का विभिन्न दृष्टिकोणों द्वारा विश्लेषण और विवेचन करता है। वस्तु के धर्म अनंत हैं और उसके दर्शक - दृष्टिकोण भी अनंत हैं। प्रतिपादन के साधन 'शब्द' भी अनंत हैं। अतः वस्तु स्पर्श करने वाली दृष्टियां अपने से भिन्न वस्तुओं को ग्रहण करने वाले दृष्टिकोणों का समादर करती हैं, वे सत्योन्मुख होने के कारण यथार्थ कही जाती हैं।
अनेक धर्मात्मक वस्तु प्रमाण का विषय है और प्रमाणज्ञान उसे समग्रभाव से ग्रहण करता है, उसमें अंश विभाजन करने की ओर उसका लक्ष्य नहीं होता। जैसे 'यह घड़ा है' – इस ज्ञान में प्रमाण घड़े को अखंड भाव से उसके रूप, रस, गंध, स्पर्श आदि अनंत गुण-धर्मों का विभाजन न करके पूर्ण रूप में जानता है, जबकि 'नय' उसका विभाजन करके रूपवान् घटः, रसवान् घटः इत्यादि रूप में उसे अपने-अपने अभिप्राय के अनुसार जानता है । '
इस तरह जो वाद विभिन्न दृष्टि-भंगों में से उत्पन्न सापेक्ष विचारों में समन्वय स्थापित करने का प्रयास करता है उसे ही 'नयवाद' कहते हैं। क्योंकि नय अंश-विभाजन कर अभिप्राय विशेषानुसार वस्तु को ग्रहण करता है। प्रमाण- ज्ञान अंश स्वर्ण जयंती वर्ष
जैन भारती
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अनेकांत विशेष • 75
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