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अनेकांतिकता की चर्चा जिन वाक्यों के संदर्भ में की गई है, वे वर्णनात्मक वाक्य हैं। पता नहीं क्यों, जैन दार्शनिक परंपरा में विधि - निषेधात्मक वाक्यों के संदर्भ में इसकी चर्चा नहीं की गई 'क्या करना चाहिए' और 'क्या नहीं करना चाहिए' क्या इसके बारे में भी अनैकांतिकता हो सकती है ? व्यवहार और चरित्र के संदर्भ में अनैकांतिकता की बात साधारणतः जैनियों को ही नहीं, अन्य लोगों को भी, मान्य नहीं होती। पर मूल प्रश्न तो यह है कि क्या ज्ञान के संबंध में अनैकांतिक होने पर व्यवहार के संदर्भ में वैसा ही नहीं होना पड़ेगा ? ज्ञान और कर्म में गहरा संबंध है, क्योंकि कर्म मनुष्य योनि में तो ज्ञान पर ही आश्रित होता है और अगर ज्ञान अनैकांतिक है तो कर्म को भी अनैकांतिक मानना पड़ेगा ।
एक तरह से देखें तो कर्म के संदर्भ में अनैकांतिक होना अधिक आसान दिखाई देता है, क्योंकि कर्म में हमेशा विकल्प होता है। विकल्प के बिना मनुष्य के स्तर पर कर्म की बात की ही नहीं जा सकती। कर्म में हमेशा एक स्वातंत्र्य होता है, जिसका आधार यही होता है कि ऐसा भी किया जा सकता है और इससे भिन्न भी इसको यह कहकर नकारा नहीं जा सकता कि विकल्प अच्छे-बुरे में होता है और जो अच्छा है उसको करना चाहिए, इसमें विकल्प की कोई बात सोची ही नहीं जा सकती। ऐसा सोचने की पूर्व मान्यता यह है कि जो अच्छा है उसमें विकल्प हो ही नहीं सकता। कर्म के संदर्भ में ऐसे कई विकल्प होते हैं, जो सब अपने-आप में एक से एक 'अच्छे' प्रतीत होते हैं और इसलिए उनमें चयन मुश्किल होता है।
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भाव जगत के संदर्भ में अनैकांतिकता की बात की ही नहीं गई है, लेकिन की जानी चाहिए। इसके संदर्भ में अनैकांतिकता का अर्थ क्या होगा, यह स्पष्ट नहीं है। लेकिन, अगर हम कलाकृतियों को भाव-जगत के चित्रण के रूप में देखें तो इतना तो स्पष्ट ही होगा कि इनमें परस्पर अंतर्विरोध से ग्रसित भावनाओं को एक साथ सामंजस्य में लाने की सदैव चेष्टा होती है। यहां साधारणतः वे एक-दूसरे की विरोधी न होकर, एक-दूसरे की पूरक के रूप में अनुभूत होती हैं। चाहे काव्य हो या नाट्य, चित्र हो या नृत्य, वास्तु हो या संगीत, सबमें सदैव यह सत्य दृष्टिगोचर होता है। इसको 'अनैकांतिक' कहें या ना कहें, यह अलग बात है। परंतु इतना तो साफ ही है कि इन क्षेत्रों में परस्पर विरोधी अनुभव होने वाली भावनाएं ही मिलकर एक भाव जगत की सृष्टि करती हैं जो उनको अपने में समाहित करके एक ऐसे
मार्च - मई, 2002
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भाव को उत्पन्न करती हैं जो उनको विरोध के रूप में महसूस करते हुए भी उनके आधार पर एक नए 'भाव' को अनुभूत करता है। यही नहीं, अगर उस विरोध को समाप्त कर दिया जाए या नष्ट कर दिया जाए तो वह भाव ही समाप्त नहीं हो जाएगा, बल्कि 'कृति' भी प्राणहीन या निर्जीव हो जाएगी।
यह सब ठीक होते हुए भी, आश्चर्य की बात तो यह है कि अनुभूत भाव जगत जो कलाकृतियों से स्वतंत्र हैउसमें हम इस विरोधाभास को न सहन कर सकते हैं, न स्वीकार । वहां तो आदमी शांति चाहता है या आनंद। कला के माध्यम से, या कहै तो, कलाकृतियों पर आश्रित या उन पर अवलंबित भाव की अनुभूति, जिसको भारतीय परंपरा में 'रस' का नाम दिया गया है, 'परतंत्र' है और इसलिए मनुष्य की चेतना को अंततोगत्वा अस्वीकार है। कहां तक देखें, सुनें या अन्य इंद्रियों से उस सबको ग्रहण करें जिसकी मनुष्य ने रचना की है? इसकी थकावट की बात न कही गई है. न लिखी गई है, पर आंखें देखते देखते थक जाती हैं और सुनते-सुनते कान पक जाते हैं। भाव जगत में चेतना सब बाहर की वस्तुओं से स्वतंत्र होना चाहती है, अपने आप में सहज रूप में स्थित लेकिन यहां तो न कोई विरोध है, न व्याघात । शायद, अनैकांतिकता की बात चेतना की उस प्रवृत्ति में ही उद्भूत होती है जो बहिर्मुखी है, जो कुछ जानना चाहती है, करना चाहती है, या उनके आधार पर किसी ऐसे भाव जगत की रचना करना चाहती है जो उसे कम से कम कुछ क्षणों के लिए सौंदर्य में अंतर्भूत प्राण आविर्भूत कर सके ।
अनैकांतिकता की बात भेद को प्रधान मानकर चलती है और 'भेद' सर्वत्र व्याप्त है। इस 'भेद' को भारतीय दार्शनिक परंपरा में केवल 'अद्वैत वेदांत' ने ही पूर्ण रूप से अस्वीकार किया है और अगर ऐसा है तो अनैकांतिकता अनेक रूप में उन सब दर्शनों में मिलनी चाहिए जो अद्वैत दृष्टि को मूलतः अस्वीकार करते हैं। अनैकांतिकता का जो रूप जैन दार्शनिक परंपरा में प्रस्फुटित हुआ है, वह उसका एक ही रूप है। अनैकांतिकता पर चिंतन, गहन चिंतन तब तक नहीं हो सकता जब तक स्वयं अनैकांतिकता में अनेकता की संभावना को स्वीकार नहीं किया जाए। यही नहीं, ऐकांतिकता क्या वास्तव में अनैकांतिकता की विरोधी है, और अगर है तो किस तरह, किन क्षेत्रों में और कहां तक ? आग्रह से मुक्त चिंतन की चेष्टा तभी हो सकती है, जब हम इस प्रत्यय पर इन प्रश्नों के संदर्भ मैं नए सिरे से विचार करें, या कम से कम करने की कोशिश करें ।
स्वर्ण जयंती वर्ष
जैन भारती
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अनेकांत विशेष • 47
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