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(प्रकाश की गति) के बिना यह तात्त्विक अभिन्नता प्रतिपादन की सामंजस्यपूर्ण मौलिकता की अनदेखी की जा अभिव्यक्त नहीं होती। काल की गति की सापेक्षता दिक् के सकती है? भारत ही नहीं बल्कि विश्व भर के दर्शनशास्त्र द्वैत-अद्वैत स्वरूप की निर्धारक सिद्ध होती है। यहां प्रयुक्त की परंपरा में अनेकांत के तर्क की युक्तिसंगतता को जिस द्वैत बहुल का बोधक है। बहुलता की इस स्थिति को देखने अधिकार और स्तर पर उन्होंने निरूपित किया है वह के असंख्य कोण हैं, सप्तभंगी के सात कोणों की चर्चा तो संभवतः हिंदी में ही होने के कारण उपेक्षित है। सामान्य बोध भर के लिए है। जब जितने जीव उतनी आत्मा
आधुनिक युग में पश्चिमी परंपरा में भौतिक विज्ञान के सिद्धांत को स्वीकार किया जाता है तब दृष्टि के कोण भी
भा का पर्याप्त विकास हुआ है, लेकिन भौतिक विज्ञान के तो उतने ही होंगे न!
दर्शन का नहीं, क्योंकि वहां अनेकांत दर्शन जैसी कोई हाइजेनबर्ग ने आइन्स्टीन के इस सिद्धांत से एक परंपरा है ही नहीं। भारतीय दार्शनिकों ने भौतिक विज्ञान ऐसा उपसिद्धांत सिद्ध किया जिसे आरंभ में स्वयं के दर्शन को विकसित करने की ओर ध्यान ही नहीं दिया आइन्स्टीन ने अस्वीकार कर दिया, पर भारतीय परंपरा के है। भौतिक विज्ञान के दर्शन को युक्तिसंगत रूप में अनेकांत दर्शन से अभ्यस्त विद्यार्थियों के लिए इसमें विकसित करने की अनेकांत दर्शन के तर्कशास्त्र में असीम आश्चर्यजनक कुछ भी नहीं है। आइन्स्टीन के परस्पर संभावनाएं हैं। प्रो. महलनवीस ने इस पर 1953 में ही, परिवर्तनीयता सूत्र में ही यह सत् निहित है कि वह पदार्थ सूत्र रूप में, विचार किया था, परंतु आगे इस दिशा में
और ऊर्जा दोनों हैं; हाइजेनबर्ग ने जब कहा कि पदार्थ की कोई संतोषजनक प्रगति नहीं हो सकी (द्रष्टव्य : स्टडीज लघुतम इकाई की गति की संभाव्यता अनिश्चित-निश्चित है इन द हिस्टी आफ इंडियन फिलासफी, सं. देवीप्रसाद तब इस कथन का निहितार्थ यह है कि पदार्थ की गति चटोपाध्याय, बागची ऐंड कं., कोलकाता, 1979, पृ. संभाव्य-निश्चित है, उसके ऊर्जा
34-51)। उन्होंने सप्तभंगी रूप की असंभाव्य-अनिश्चित।
न्याय में निहित द्वंद्वात्मक तत्त्व भारतीय जैन दर्शन की दृष्टि से मानवता की विजयिनी होने की
पर जिस मौलिक दृष्टि से विचार यह अनेकांत दर्शन का एक कोण
भावना से प्रेरित हुए बिना अनेकांत किया है उससे हीगेल, मार्क्स ही है न! दर्शन के अभिनव विकास की
और एंगेल्स के द्वंद्वात्मक दर्शन प्राचीन जैन दर्शनिकों के संभावना नहीं है। विज्ञान ने ज्ञान के में एक नया अध्याय जुड़ने की युग में कैमरे का आविष्कार नहीं विद्युत्कणों को बिखेर दिया है क्योंकि
इसलिए संभावना है कि एंगेल्स हुआ था, नहीं तो विभिन्न कोणों वह बहिर्मुखी है और उसकी पद्धति
(डाय लेक्टिस आफ नेचर, मूल से जैसे कैमरे से मुद्रा के विभिन्न विश्लेषणात्मक है; दर्शन अंतर्मुखी है
आलेख, 1875-76) के बाद फोटो लिए जाते हैं, अपने और उसकी पद्धति संश्लेषणात्मक।
भौतिक विज्ञान का जो विकास चूंकि अनेकांत दर्शन यथार्थमूलक रहा दार्शनिक सिद्धांत को बोधगम्य है और विज्ञान की दृष्टि भी।
हुआ है उस पर इस दृष्टि से बनाने के लिए इस उपमा का यथार्थमूलक है, इसलिए अनेकांत
नाममात्र का विचार किया गया उपयोग कर सकते हैं। आज नित दर्शन की न्याय-पद्धति नए सामंजस्य
है। एंगेल्स ने इस पुस्तक की नए शक्तिशाली कैमरों का और समन्वय की वर्तमान रिक्तता की
भूमिका में एक ओर काल के आविष्कार हो रहा है, इतना ही पूर्ति कर सकती है।
अनंत विस्तार में सतत चल रहे नहीं बल्कि उपग्रहों की ऊंचाई से
परिवर्तनों की ओर ध्यान आकृष्ट भी काफी साफ चित्र खींचे जा रहे
किया और दूसरी ओर द्रव्य हैं तथा समुद्र-तल की गहराई से भी चित्र खींचे जा रहे हैं। (पदार्थ, मैटर) को अक्षय भी बताया है। फिर तो एंगेल्स इन सबसे सत् के कितने कोण प्रकट हो रहे हैं! उमास्वाति, का द्रव्य वेदांत का ब्रह्म ही ठहरता है! सन् 1875-76 कुन्दकुन्दाचार्य, समन्तभद्र, सिद्धसेन दिवाकर, अकलंक, के बाद के इन एक सौ पचीस वर्षों में भौतिक विज्ञान का हेमचन्द्र आदि आचार्यों ने जिस भाषा-शैली में अनेकांत जो अभूतपूर्व विकास हुआ है उससे प्राप्त तथ्यों पर दर्शन को प्रस्तुत किया है, क्या उतने में ही अनेकांत निःशेष अनेकांत दर्शन की दृष्टि से चिंतन की आज नितांत हो गया? क्या पं. सुखलालजी जैसे आधुनिक आचार्य के आवश्यकता है, जिसमें भारतीय स्याद्वाद और पाश्चात्य
HARE
HERI 42. अनेकांत विशेष
स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती
मार्च-मई, 2002
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