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आवश्यक-अनावश्यक उन विधि-निषेधों का, जिनके कठोर वैज्ञानिक विचारधारा बताकर कभी सब पर थोपने की बंधन में धर्म लगभग निष्प्राण हो गया।
कोशिश की जाती है, कभी सभ्यताओं की टकराहट का भय भारत में भौतिकवादी दर्शन के विकास की उतनी ही दिखाकर अमेरिकी सभ्यता और विचारधारा को सारे विश्व संभावना और स्वतंत्रता थी जितनी अध्यात्मवादी या किसी पर थोपने का प्रयास किया जाता है। (सैम्यूयेल हंटिंग्टन. अन्य दर्शन के लिए, यह देवीप्रसाद चटोपाध्याय (लोकायत. क्लैश आफ सिविलाइजेशंस, 1996) नई दिल्ली, 1959; इंडियन फिलॉसफी, नई दिल्ली, वैदिक युग में दृष्टि कितनी व्यापक थी इसका प्रमाण 1979) तथा आनंदकुमार स्वामी (बुद्ध ऐंड द गॉस्पेल केवल 'एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति' (ऋ. 1.164.46) ही आफ बुद्धिज्म, 1916%; हिंदुइज्म ऐंड बुद्धिज्म, 1943) नहीं बल्कि अन्य वैदिक मंत्र भी हैं (यजु. 26.2 तथा अथ. आदि से स्पष्ट है। अपने मत के मंडन और अन्य मतों के 12.1.45)। अथर्ववेद ने तो 'नाना-धर्माणं पृथिवी खंडन में अधुनातन दृष्टि से प्राचीन दृष्टि की तुलना करने यथौकसम्' और यजुर्वेद ने अपनी वाणी को ब्राह्मण-क्षत्रियसे स्पष्ट है कि इस लंबे अंतराल के बाद भी स्थिति वैसी वैश्य-शद्र-देशी-विदेशी सबका समान रूप से कल्याण करने है। (द्रष्टव्य, कंचा इलैया, गौड ऐज पॉलिटिकल वाली कहा है। इसी के कारण तीर्थंकर ऋषभदेव और गौतम फिलासफर, साम्य, कोलकाता, 2000) इसमें जैन धर्म के बुद्ध दोनों को चौबीस अवतारों में परिगणित किया गया है। अनेकांतवाद, स्याद्वाद एवं सप्तभंगी-न्याय के साथ-साथ चटोपाध्याय के इस मत को भी स्वीकार कर लिया है कि
2: अहिंसा के संबंध में इसकी अतिवादी दृष्टि के कारण यह
वैदिक युग के वातावरण की उदारता, व्यापकता और तत्कालीन समाज की तात्त्विक आवश्यकताओं की पर्ति नहीं सत्य को उसकी पूर्णता में ग्रहण करने की दृष्टि को ध्यान में कर सका जिसके कारण बद्ध और बौद्ध धर्म-दर्शन के लिए रखे बिना अनेकांत दर्शन को नहीं समझा जा सकता। कई मार्ग प्रशस्त हो गया। (वही, प. 43) पर तत्त्व-द्रष्टा देशी-विदेशी विद्वान अनेकांत दर्शन को संशयवाद या आचार्य नरेंद्रदेव ने ठीक ही लिखा है कि ब्राह्मण परंपरा और संदेहवाद मानने की भूल इसीलिए करते आ रहे हैं, वैसे ही श्रमण परंपरा भारतीय लोक-जीवन में ऐसी घल-मिल गईं जैसे वैदिक दर्शन को कुछ देशी-विदेशी विद्वान बहुदेववादी कि एक ने दूसरी को कहां और
या प्रकृतिवादी या देहात्मवादी मानने कितना प्रभावित किया, आज इसका
की भूल कर बैठते हैं। उपनिषद
वैदिक युग के वातावरण की निश्चय करना कठिन है। भारतीय
वचनों से जब ऐसी भ्रांति पैदा होने
उदारता, व्यापकता और सत्य को लोक-जीवन पर श्रमण परंपरा का उसकी पूर्णता में ग्रहण करने की
लगी तब उनमें निहित सामंजस्य की कितना गहरा प्रभाव है, यह इसी से दृष्टि को ध्यान में रखे बिना
युक्तिसंगतता को प्रतिपादित करने स्पष्ट है कि श्रमणों-मुनियों, अनेकांत दर्शन को नहीं समझा
के लिए जिस प्रकार से व्यास ने योगियों-संन्यासियों-महात्माओं के जा सकता। कई देशी-विदेशी
'ब्रह्मसूत्र' की रचना की उसकी प्रति जो अपार श्रद्धा है उसी के विद्वान अनेकांत दर्शन को
आवश्यकता वेद मंत्रों को लेकर कारण गांधीजी महात्मा के रूप में संशयवाद या संदेहवाद मानने की इसलिए नहीं हुई, या होनी चाहिए, सर्वमान्य हो गए। (आचार्य नरेंद्रदेव, भूल इसीलिए करते आ रहे हैं, कि ईशावास्योपनिषद यजुर्वेद का बौद्ध धर्म-दर्शन, बिहार-राष्ट्रभाषा
वैसे ही जैसे वैदिक दर्शन को कुछ
चालीसवां अध्याय होने के कारण परिषद, पटना) देशी-विदेशी विद्वान बहुदेववादी
वेद भी है और वेदांत भी है। लेकिन या प्रकृतिवादी या देहात्मवादी तत्कालीन वैदिक समाज में
इस संपूर्ण दृष्टि से इस एकमात्र मूल मानने की भूल कर बैठते हैं। इतनी स्वतंत्रता थी कि ब्राह्मण और
वेदांत ग्रंथ का अध्ययन-मनन किया श्रमण परंपराएं समानांतर रूप से
ही नहीं जाता है। विकसित हो रही थीं। वैदिक समाज शब्द के जिस पूरे अर्थ बिना सम्यक मनन के यह कथन अनेक लोगों को में बहुलतावादी समाज (प्लुरल सोसायटी) था, तथाकथित नहीं रुचेगा कि वैदिक अद्वैत में अनेकांत और जैन अनेकांत लोकतंत्र और भौतिक विकास के इस युग में भी आज विश्व में वैदिक अद्वैत अंतर्निहित हैं। इसी प्रकार से वैदिक दृष्टि में में कहीं नहीं है। तभी एक ओर मार्क्सवाद को एकमात्र श्रमण-दृष्ट कर्मकांड का निषेध भी विद्यमान है। ऋग्वेद
स्वर्ण जयंती वर्ष मार्च-मई, 2002
जैन भारती
अनेकांत विशेष .39
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