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अनेकांठ दर्शन : ऊवारीहण की साधना
प्रो. सिद्धेश्वर प्रसाद
आदि तीर्थंकर ऋषभदेव और अंतिम तीर्थकर वर्धमान महावीर की अनुमति के मूल के धरातल तक ऊरिहण की । साधना ही अनेकांत दर्शन है। अतः ऊध्वविहण में जिस विवेचन से सहायता प्राप्त होती हो, जो लेखन या प्रवचन इसके लिए प्रेरित करता हो, वही अनेकांत दर्शन की प्रक्रिया है। ऊध्वविहण की इस प्रक्रिया से गुजरने पर साधक की दृष्टि की संकीर्णता, दुराग्रह, मन की चंचलता मिटने लगती हैं और वह उस स्थिति को प्राप्त होता जाता है जिसमें
संपूर्णता का बोध अधिकाधिक स्पष्ट होकर केवली और सर्वज्ञता की स्थिति प्राप्त होती है। जैन दर्शन की अनुभूति की । इस स्थिति को ही वैदिक दर्शन में आत्मसाक्षात्कार, ब्रह्मसाक्षात्कार, अद्वैत दर्शन कहा जाता है और इसी स्थिति को
भक्तिमार्ग में महाभाव कहा जाता है। इनमें जो साम्य है वह अनुभति के धरातल की समानता के कारण और जो भेद है वह साधक के प्रस्थान-भेद के कारण
ड में स्थित चेतना का ब्रह्मांड-चेतना से योग में आकार ग्रहण नहीं कर सके वे न तो लोकग्राह्य हुए, न
अध्यात्म है। समाज की नैतिकतापूर्ण व्यवस्था टिक सके। इस रूप में भारत की तीन मुख्य जीवन दृष्टियां, के स्वरूप का निर्धारण-नियमन धर्म है। पर ये दोनों तीन दर्शन, तीन धर्म हैं वैदिक, जैन और बौद्ध। कालक्रम धारणाएं एक-दूसरे के क्षेत्र में संचरण करती आई हैं। में बौद्ध नवीनतम है, वैदिक प्राचीनतम और जैन लगभग इसीलिए धर्म और अध्यात्म दोनों शब्दों के प्रयोग में उसके समकालीन, क्योंकि प्रथम जैन तीर्थंकर ऋषभदेव अक्सर शिथिलता देखी जाती है।
वैदिक युग में हुए। आश्चर्य की बात है कि आज उनके इन दोनों के मूल तक पहुंचने की क्रांतदर्शी दृष्टि
व्यक्तित्व और कृतित्व को उतना भी महत्त्व नहीं दिया जा दर्शन है। अतः धर्म का भी दर्शन है, अध्यात्म का भी; इसी
रहा है जितना भागवत पुराण में दिया गया है। जैन दर्शन पर प्रकार से अन्य दर्शन भी हैं। इसी अर्थ में वैदिक ऋषि दृष्टा हाल में प्रकाशित विशालकाय ग्रंथ में प्रथम तीर्थंकर का थे, इसी अर्थ में कवि शब्द का भी प्रयोग हुआ है। पाश्चात्य
केवल एक बार उल्लेख मिलता है। (द्रष्टव्य, पृ. 244, जैन परंपरा में दर्शन अध्ययन-मनन की एक पद्धति है। अतः
दर्शन : एक विश्लेषण, लेखक आचार्य देवेंद्र मुनि, यहां तर्क प्रधान हो जाता है, दृष्टि गौण हो जाती है। अंग्रेजी यूनिवासटा पाब्लकशन, दिल्ली, 1997) के जिस 'फिलॉसफी' शब्द के पर्याय के रूप में आज दर्शन वैदिक वांग्मय न केवल संसार का प्राचीनतम का प्रयोग प्रचलित हो गया है वह मूल ग्रीक शब्द उपलब्ध वांग्मय है बल्कि उसके बाद के हजार वर्षों में भी 'फिलॉसफिया' से निकला है जिसका अर्थ है 'ज्ञान की चाह - किसी परंपरा में ऐसा विशाल वांग्मय नहीं रचा गया। वैदिक या ज्ञान से प्रेम'।
युग न तो दर्शन की पद्धति के विकास का युग था, न धर्म के अपने मूल रूप में भारत में दर्शन तर्काश्रित नहीं रूढिबद्ध रूप लेने का। वेद में वेदांत का बीज है, पर वेदांत बल्कि अनुभवाश्रित है और इस रूप में वह धर्म का मूल है। दर्शन का नहीं; कम-से-कम वह वेदांत दर्शन तो वहां नहीं है जिज्ञासा की जिस व्याकुलता से दृष्टि दर्शन का रूप लेती है जिसका निरूपण शंकराचार्य या राधाकृष्णन ने किया है। वही व्याकुलता मनुष्य को तदनुरूप जीवन जीने की प्रेरणा इसी प्रकार से वेद में धर्म 'सत्य धर्माणं अध्वरे' (ऋ. देती है। जब दर्शन दृष्टि की मानसिक भूमि से जीवन की 1.12.7.) है जो ऋत अर्थात् ब्रह्मांड-चक्र के अव्याहत भौतिक भूमि पर अवतरित होता है तब वही धर्म कहा जाने नियम का द्योतक है (ऋतस्य पंथां न तरंति दुष्कृतः, ऋ. लगता है। इसीलिए भारतीय परंपरा में जो दर्शन धर्म के रूप 9.73.6), न कि मनु-स्मृति या अन्य स्मृतियों के
स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती
38. अनेकांत विशेष
मार्च-मई, 2002
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