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आई है उस दृष्टिकोण से सही हो सकता है। इसी प्रकार न निकालें तो शायद सरकार के पास भी आर्थिक तंगी न बहू यह समझ ले कि सास जो-कुछ कह रही है, वह उसके हो। फिर परस्पर कर्म-विराम और तोड़-फोड़ की नौबत न अपने पति-परिवार के खट्टे-मीठे अनुभवों के आधार पर कह आए। यह तभी हो सकता है जब राजनेता और जनसामान्य रही है। दोनों द्वेष छोड़कर वस्तुनिष्ठ विचार करें, एक-दूसरे के जीवन का अंग महावीर की अनेकांत दृष्टि बने। के विचार को सम्मान दें, तो प्रतिदिन के कलह टाले जा निष्कर्ष के रूप में सिद्धसेन दिवाकर के शब्दों में कहा सकते हैं। कलह के अभाव में परस्पर प्रेम और विश्वास बना जा सकता है कि-'सिंधु में जैसे सरिताएं मिलती हैं वैसे ही रहेगा तो परिवार एक रहेगा। अलग होने की स्थिति में किए अनेकांत दृष्टि में सारी दृष्टियां आकर मिल जाती हैं।'5 जाने वाले अनेक प्रबंध व संसाधनों के जुगाड़ के स्थान पर अतः आज आवश्यकता इस बात को हृदयंगम करने की है एक से ही काम चलेगा, अर्थ-व्यय कम होगा और साधनों कि 'सत्य शब्दातीत होता है, वह अनुभूति का ही विषय है, का अनावश्यक आकर्षण कम होगा, अर्थ-मोह की कमी से वाच्यता में उसका एक अंश ही ग्राह्य होता है। बहुधा अनेक दुष्चक्र रुक जाएंगे। कार्य के ठीक उत्तरदायित्वपूर्ण व्यक्ति एक अंश को ही पूर्ण मानकर आग्रहशील हो जाता विभाजन से द्विधा-बोझ कम होगा और परस्पर प्रसन्नता व है। इसीलिए महावीर ने श्रोता और वक्ता-दोनों को, शांति रहेगी। यही शांति और समृद्धि परिवार से समुदाय में वाच्य अंश को अन्य अंशों से निरपेक्ष न करने का चिंतन और समुदाय से समाज तक जाएगी।
दिया। इसका फलितार्थ है-'जो मेरा है केवल वही सत्य राजनीतिक पटल पर भी मतवादों एवं स्व-सिद्धांत नहीं, अपितु दूसरे के पास जो है वह भी सत्य हो सकता है। प्रसार के आग्रह के कारण फैलते झगडे कम होंगे। एक- पूर्ण सत्य अनुभूति का विषय है।'' दूसरे के द्वारा कही हुई बात का बुरा मानने के स्थान पर आचार्यश्री तुलसी के शब्दों में—'हमारी सबसे बड़ी दूसरे को सम्मान देते हुए, उसका आदर करते हुए अपनी गलती यही रही है कि तत्त्व की व्याख्या में तो हमने बात कही जाएगी और दूसरे को भी यदि यह विश्वास होगा 'अनेकांत' को जोड़ा, पर जीवन की व्याख्या में उसे जोड़ना कि मेरी उचित बात हमेशा मानी जाएगी तो सत्ता-मोह कम भूल गए, जबकि महावीर ने जीवन के हर कोण के साथ होगा, सत्ता-मोह का अभाव पारस्परिक 'आयाराम- अनेकांत को जोड़ने का प्रयत्न किया। गयाराम' की नीति को हतोत्साहित करेगा, शासन में
अब हमें भी महावीर की भांति जीवन के हर पहलू को स्थिरता आएगी। राष्ट्र तथा संस्कृति रक्षण ही सर्वोपरि
अनेकांत के साथ जोड़ने का सतत प्रयत्न करना चाहिए। आदर्श होंगे। फिर हमें बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथों
यदि इस दिशा में हम गतिशील होंगे तो समस्याओं के कठपुतली नहीं बनना पड़ेगा।
समाधान स्वतः ही हो जाएंगे। इससे अच्छा उपाय और उद्योग एवं कर्मचारी तंत्र में फैलती परस्पर अविश्वास क्या हो सकता है? की खाई, यूनियनों के परस्पर झगड़े एवं कर्मचारी-वर्ग पर
संदर्भ प्रभुत्व जमाने की राजनीति के संबंध में भी यही बात कही
1. कारिका-22 जा सकती है। सरकार अनेक बार यह समझती है कि
2. द्रष्टव्य 1/133-88 कर्मचारियों की यह आवश्यकता उचित है, उसे देना भी
3. (क) अपर्ययं वस्तु समस्यमानमद्रव्यमेतच्च विविच्यमानम्। चाहती है, फिर भी वह चाहती है कि इस सुविधा को दिलाने
आदेशभेदोदितसप्त भङ्गमदीदृशस्त्वबुधरूपवेद्यम्।। का श्रेय अमुक संगठन को देना है तो वह स्वयं संकेत
–स्याद्वादमंजरी, श्लोक-23 करती है, हड़तालें होती हैं, देय सुविधा दी जाती है और
(ख) विस्तार के लिए द्रष्टव्य-वही अदेय सुविधाओं के न मिलने का दोष दूसरे संगठनों पर
4. मूल उद्धरण षोडषक, 16/19 डालती है। उसका राजनीतिक लाभ चुनाव में लिया जाता
कर्मयोगी केसरीमल सुराणा अभिनंदन ग्रंथ, चतुर्थ खंड, है। यदि सरकार सत्ता-मोह से हटकर देय सुविधाएं बिना पृ. 262 परेशान किए दे दें तो अव्यवस्था दूर हो सकती है। साथ ही 5. द्रष्टव्य—मुनि नथमल कृत श्रमण महावीर, पृ. 178 कर्मचारी-वर्ग भी यह समझे कि सरकार जिस कार्य के लिए 6. मुनि महेन्द्रकुमार 'प्रथम'–महामानव महावीर, लेख पैसा देती है, हमें वह कार्य निष्ठा से करना है और राजस्व महावीर जयंती स्मारिका, रूड़की, 1994 की बहती सरिता में से अपने घर की ओर कुल्याएं (नाले) 7. समणी कुसुमप्रज्ञा कृत-गुरुदेव तुलसी, पृ. 176 **
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स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती
140. अनेकांत विशेष
मार्च-मई, 2002
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