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या सत्तारूढ़ दल की नीति'। अपने सिद्धांतों को केंद्र में हो सकती हैं। यही दृष्टिकोण स्याद्वाद, सप्तभंगी नय या रखकर वह शासन संचालन हेतु दिशा-निर्देश देता है, अनेकांत कहलाता है। हो सकता है जो बात हम कह रहे हैं, कर्मचारी-तंत्र को आदेश देता है। राजनीति का आदर्श वह दूसरे के समझ में न आए अथवा जो बात दूसरा कह रहा व्यवस्थाओं का नियमन, राष्ट्र की सुरक्षा और प्रजा की है वह हमारी समझ में न आए। सामान्यतया आदमी अपनी समृद्धि होना चाहिए। सभी दल अपना आदर्श भी यही बात को सत्य और दूसरे की बात को असत्य सिद्ध करने का बताते हैं, किंतु यथार्थ कुछ और ही दृश्य दिखाता है। सत्ता यत्नपूर्वक प्रयत्न करता है। अतः तत्त्वचिंतक आचार्य ने पाना यहां चरम लक्ष्य बन जाता है। सिद्धांत दिखाने के सलाह दीदांत रह जाते हैं। हर दल अपनी सत्ता हेतु सभी तरह के तत्रापि न द्वेष कार्यो विषयवस्तु यत्नतो मृग्यः। हथकंडे अपनाते हैं। फलतः कल तक जो समूह एक दल के तस्यापि च सद्वचनं सर्वं यत्प्रवचनादन्यत्।। समर्थन में होता है वह दूसरे पल में पक्षद्रोह कर दूसरे दल
अर्थात् हमारे वचन से अन्यथा बात कहने वाले को समर्थन दे देता है। इस अंधी दौड़ में शासन में
व्यक्ति से भी द्वेष नहीं करना चाहिए, वस्तु पर विशेष ध्यान अस्थिरता, परस्पर अविश्वास, अर्थ को अनावश्यक महत्त्व,
देकर विचार करना चाहिए। हो सकता है उसका वचन भी घोटाले, भ्रष्टाचार, राजनीति का अपराधीकरण, भाई
सद्वचन हो। भतीजावाद, राष्ट्र-विमुखता, सांस्कृतिक-द्रोह और राष्ट्रद्रोह की दहलीज पारकर शत्रुओं और विदेशी कंपनियों के
भगवान महावीर द्वारा प्रवर्तित अनेकांत एकदम नवीन हस्तग तक बनने की श्रृंखला शुरू हो जाती है।
हो—ऐसी बात भी नहीं है। इसके बीज हमें वैदिक साहित्य भगवान महावीर के आविर्भाव के समय भी कुछ
में भी मिलते हैं, जहां उषा को 'पुरातनी युवतिः' स्थितियां ऐसी ही रही होंगी, तभी उन्होंने अनेकांत को
(415116) कहा गया है। ब्रह्म को अनेक देवों के रूप में व्याख्यायित किया। 'अनेक अन्तः धर्मा यस्य स
व्याख्यायित एक ही तत्त्व मानते हुए कहा गया—एकं सद् अनेकान्तः' अर्थात् वस्तु में विद्यमान अनंत धर्मों का युगपत्
विप्राः बहुधा वदन्ति। इन्द्र यमं मातरिश्वानमाहुः ।' स्वीकार अनेकांत है। वस्तु एक है, उस पर भिन्न-भिन्न किंतु महावीर ने साढ़े बारह वर्षों की कठोर साधना दृष्टिकोण से विचार करने पर उसकी पृथक-पृथक और तपस्या के बाद प्राप्त सत्य के दर्शन को सर्वतः देखकर विशेषताएं दृष्टिगोचर होती हैं। अतः अनेकांत का अर्थ यह अनुभूति की और यही अनुभूति उन्होंने अपने शिष्यों को है—विभिन्न कोणों या पहलुओं से वस्तु की अखंड सत्ता दी कि दूसरों की बात को भी सुनो। सुनो ही नहीं ध्यानपूर्वक का आकलन।
सुनो, हो सकता है उसमें भी कोई तथ्य हो। शांति, धैर्य स्याद्वादमंजरी' में हेमचंद्राचार्य ने अनेकांत का लक्षण और विश्वास से उसकी बात सुनकर अपनी बात कहो। दिया है-'अनन्तधर्मात्मकमेव तत्त्वमतोऽन्यथा जीवन संचालन की यह पद्धति एक दृढ़ स्तंभ के रूप में सत्त्वमसूपपादम्' अर्थात् प्रत्येक पदार्थ में अनंत धर्म हैं, स्वीकार कर दर्शन में सम्मिलित की गई। इस प्रकार कहा पदार्थों में अनंत धर्म माने बिना वस्तु की सिद्धि नहीं होती। जा सकता है कि अनेकांत का सिद्धांत मौलिक नहीं है।
भगवतीसूत्र में कहा गया है कि अस्तित्व और मालिक है-एक वस्तु मे अनेक विराधा धमा का स्वीकार नास्तित्व परस्पर विरोधी नहीं हैं. अपित दोनों सहभावी हैं। और प्रतिपादन। इसीलिए यह आज भगवान महावीर और दोनों साथ में रहकर ही वस्तु को वास्तविकता प्रदान करते जन
वाले जैन धर्म-दर्शन का पर्याय बन गया है। हैं। इस प्रकार अनंत कोणों का होना विरोध नहीं है। उनका वर्तमान सामाजिक और राजनीतिक अराजकता, हमारी बुद्धि की पकड़ में न आना विरोध प्रतीत होता है। उलझाव और टूटन के युग में यदि इस सिद्धांत का व्यापक यथा-किसी वस्तु के विषय में एक दृष्टि से कही गई बात समझ के साथ उपयोग हो तो पारस्परिक अविश्वास, सच है तो उसी वस्तु के विषय में दूसरे दृष्टिकोण से देखी वैमनस्य और आपाधापी के झंझावात की गति में अवरोध गई बात भी उतनी ही सत्य हो सकती है। एक दृष्टिकोण से आ सकता है। विद्वेष, अनाचार और कदाचार की आंधी जो बात सत्य है, दूसरे दृष्टिकोण से वह बात असत्य भी हो रुक सकती है। परिवार में सास यदि यह समझ ले कि दूसरे सकती है। इस तरह एक ही वस्तु के विषय में सात नयों से के घर से आई बहू जो-कुछ कह रही है वह उस घर के कही गई सात बातें एक साथ सत्य, असत्य और सत्यासत्य दृष्टिकोण, वहां के पारिवारिक वातावरण जहां से वह
स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती
मार्च-मई, 2002
अनेकांत विशेष. 139
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