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________________ अनेकांठ और नए समाज की रचना आचार्यश्री महाप्रज्ञ सभाहलमाRESHINDE ASSISeptem दर्शन के क्षेत्र में अद्वैतवाद और द्वैतवाद-दो सिद्धांत प्रचलित हैं। अद्वैत के बिना एकता की और दैत के बिना अनेकता की व्याल्या नहीं की जा सकती। अद्वैत और देत दोनों का समन्वय ही विश्व की व्याख्या का समग्र दृष्टिकोण बनता है। चेतन और अचेतन में एकता के सत्र भी पर्याप्त है। उनके आधार पर हम सत्ता (अस्तित्व) तक पहुंच जाते हा चेतन और अचेतन में अनेकता के सूत्र भी विद्यमान है। इस आधार पर हम सत्ता के विभक्तीकरण तक पहुंच जाते है। समन्यय एकता की खोज का सूत्र है, किंतु उसकी पृष्ठभूमि में रही हुई अनेकता का अस्वीकार नहीं है। इसी आधार पर हम व्यक्ति और समाज की सभीचीन व्याख्या कर सकते हैं। - या मनुष्य, नया समाज, नया विश्व इस मानव, नए समाज और नए विश्व की. कल्पना नहीं हो कल्पना का स्वर सर्वत्र सुनाई दे रहा है। इस सकती। दिशा में प्रयत्न भी हो रहा है। मान्यता अपने स्वार्थ और अपने हित पर आधारित क्या यह स्वर सार्थक है? क्या प्रयत्न सफल होगा? हो जाती है, इसलिए व्यक्ति अपने स्वार्थ और अपने हित शाश्वत के आधार पर सार्थकता और सफलता को नहीं की बात सोचता है, दूसरे के हित और स्वार्थ की बात गौण खोजा जा सकता। जो शाश्वत है, उसमें परिवर्तन नहीं कर देता है। जाति और संप्रदाय के अभिनिवेश की मूल जड़ होता। परिवर्तन के बिना नए मानव, नए समाज और नए यही है। इसी जड का विस्तार संघर्ष, कलह और युद्ध के विश्व की कल्पना साकार नहीं हो सकती। रूप में होता है। अनेकांत दृष्टि में शाश्वत मान्य है, पर केवल शाश्वत सम्यक् दर्शन का विकास होने पर मान्यता सत्य की मान्य नहीं है। उसके अनुसार अशाश्वत भी सत्य है, खोज में बदल जाती है, विरोधी हितों का द्वंद्व भी समाप्त हो परिवर्तन भी सत्य है। शाश्वत के आधार पर अस्तित्व की जाता है। दो जातियों, दो संप्रदायों, दो वर्गों के हित भी व्याख्या की जा सकती है। वह अपरिवर्तनीय है। परस्पर विरोधी माने जाते हैं। वास्तव में वे विरोधी नहीं हैं, अपरिवर्तनीय का एक अविभाज्य अंग है परिवर्तन। किंतु मिथ्या दर्शन के कारण उनको विरोधी माना जा रहा है। अपरिवर्तन और परिवर्तन-दोनों पृथक् नहीं हैं। दोनों एक सम्यक् दर्शन का विकास होने पर विरोधी लगने वाले हित साथ रहने वाले हैं। अविरोधी बन जाते हैं—एक-दूसरे के पूरक बन जाते हैं। परिवर्तन संभव है, इसलिए नए मानव, नए समाज सम्यक् दर्शन का अर्थ है अनेकांतवाद। और नए विश्व की कल्पना असंभव कल्पना नहीं है, अशक्य कल्पना नहीं है। मिथ्या दर्शन का अर्थ है एकांतवाद। परिवर्तन का मूल हेतु है दृष्टिकोण। उसके आधार एक पर्याय-एक विचार को समग्र मान लेना, पर बनता है सिद्धांत। सिद्धांत की क्रियान्विति का अर्थ है निरपेक्ष मान लेना, एकांतवादी दृष्टिकोण है। एक विचार को परिवर्तन। हम परिवर्तन करना चाहते हैं, किंतु उसके लिए अपूर्ण और सापेक्ष मान लेना अनेकांतवादी दृष्टिकोण है। सम्यक् दर्शन की अपेक्षा है। उसका विकास करना नहीं सम्यक् दर्शन का विकास अनेकांत दृष्टि के आधार चाहते। परिवर्तन और सम्यक् दर्शन-इन दोनों के बीच पर हो सकता है। अनेकांत की मौलिक दृष्टियां दो सबसे बड़ी बाधा है मान्यता। हर व्यक्ति, हर संगठन की हैं-निरपेक्ष और सापेक्ष। अस्तित्व का निर्धारण करने के अपनी-अपनी मान्यताएं हैं। मान्यताओं के आधार पर नए लिए निरपेक्ष दृष्टि का प्रयोग करना चाहिए। संबंधों का ::::::: : स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च-मई, 2002 अनेकांत विशेष.11 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014015
Book TitleJain Bharti 3 4 5 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhu Patwa, Bacchraj Duggad
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year2002
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size33 MB
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