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गांधी : अहिंसा का व्यवहार पक्ष
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यह मनुष्यों को तुच्छ और व्यक्तिगत स्वार्थों के बन्धनों से मुक्त करके उन सहानभूतियों के प्रति चैतन्यशील बनाती है जो मनुष्य को ऊँचा उठाती हैं। जीवन का अर्थ तब सार्थक होता है, जब उसकी गति सामान्य प्रवृत्तियों में तरगित दिखाई देती है और सर्व सामान्य के हृदयों को उद्वेलित करती है। उनकी अहिंसा केवल महात्माओं और विरागियों की अहिंसा नहीं है और न उनकी अहिंसा केवल विशुद्ध धर्मोपदेश ही है जिसका उपदेश करके सन्त और महात्मा तृप्त हो जाया करते हैं। उनकी अहिंसा विशुद्ध अलभ्य आदर्श के रूप में जगत् के सम्मुख उपस्थित नहीं हुई है। उनकी अहिंसा की कल्पना में केवल प्राणी-मात्र के प्रति दया अथवा जीवहिंसा मात्र न करना ही समाविष्ट नहीं है। उनकी अहिंसा इन सबसे कहीं अधिक व्यापक, कहीं अधिक सजीव और कहीं अधिक सक्रिय है। महात्मा गांधी ने व्यक्ति और समूह के लिये, समाज के संघटन और सामाजिक तथा व्यक्ति और समूह के लिये, समाज के संघटन और सामाजिक तथा व्यक्तिगत जीवन व्यापार के लिये जिस भित्ति का प्रतिपादन किया, वह उनकी अहिंसा में समाविष्ट है।
गांधी जी अहिंसा की कल्पना में केवल सीधी-सादी जीव दया हो नहीं, वरन् अहंत्व के परित्याग की कल्पना भी मिश्रित है। उनकी दृष्टि में वह सब हिंसा है जिसका जन्म अहं के भाव से होता है। स्वार्थ, प्रभुता की भावना, असंतुलित और असंयमित भोग-वृत्ति, विशुद्ध भौतिकता की पूजा, शस्त्र और शक्ति के द्वारा अपनी कामनाओं की पूर्ति अपने अधिकार को बनाये रखने के लिये बल का सहारा तथा दूसरों के अधिकारों का अपहरण आदि समस्त बातें हिंसा ही हैं। उनके अनुसार हिंसा एक मनःस्थिति है जो विशेष प्रकार की प्रवृत्ति में उत्पन्न होती है। उनकी अहिंसा इन सबसे विपरीत मनःस्थित प्रवृत्ति, पथ और कार्य की धोतिका है, वह स्वार्थ अहंकार, भौतिक भोगों की लोलुपता से ऊँचे उठकर, अपने व्यक्तित्व का विसर्जन विराट के हित में कर देने में अपना विकास, अपनी प्रगति और अपना निःश्रेयस देखे । इस प्रकार की अहिंसा को वे व्यक्तिगत तथा सामाजिक जीवन का मूल आधार बनाना चाहते थे। उनका विश्वास था कि अहिंसक के समीप हिंसा टिक ही नहीं सकती। अपनी प्रौढ़ावस्था में वह महर्षि पञ्जलि द्वारा प्रतिपादित कि "अहिंसा की प्रतिष्ठा हो जाने पर साधक के समीप सबका बैरभाव नष्ट हो जाता है।"१ में विश्वास करते थे।
१. अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ बैरत्यागः-साधनपाद, ३५ १-क हिन्दी नवजीवन, १ मार्च १९२८
परिसवाद-३
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