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सम्पादकीय
'भारतीयचिन्तन की परम्परा में नवीन संभावनायें' विषयक परिसंवाद का यह दूसरा भाग प्रस्तुत हो रहा है । इसमें कुछ नये विचार प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया गया है । तुलनात्मकधर्मदर्शनविभाग ने जो समय-समय पर गोष्ठियां आयोजित की हैं, उनमें से तीन इस भाग में प्रकाशित हैं। यहां पर विचारों को नया आयाम देने के लिए दर्शनों का नया वर्गीकरण कैसे किया जाय ? इस पर बल दिया गया है । कुछ लोग नये वर्गीकरण के पक्ष में हैं तो कुछ इसके विपक्ष में । नया दर्शन कैसे ? इस संगोष्ठी में भी परम्परागत संस्कृत के विद्वानों की कुछ न कर पाने की टीस दिखलायी पड़ती है तथा वे सदा कुछ कर गुजरने के लिए नये चिन्तकों का परामर्श तक लेने को तैयार हैं । काश, यह मूर्त रूप हो सकता। संस्कृत साहित्य में सूक्तियां बहुत हैं और पण्डितगण उनका उद्धरण बहुत देते हैं पर वे नैतिक उद्धरण कितने क्रियान्वित हो सकते हैं, इसके लिए गांधी के वहाने सत्य अहिंसा के प्रयोग का विश्लेषण किया गया है । इसमें परम्परागत मूल्यों को जीवन में उतारने का विवरण है ।
तुलनात्मक धर्मदर्शनविभाग को इस परम्परागत विश्वविद्यालय में कुछ नया करने का दायित्व उत्तराधिकार में प्राप्त है । क्योंकि नये दर्शनों (पश्चिमी) के अध्ययन के साथ जब परम्परागत दर्शनों की तुलना की जाती है तो उसमें बहुत सी परम्परागत मान्यताएं खोखली लगती हैं, फलतः उन पर से विश्वास उठता है तथा सारभूत बातों पर ध्यान रह जाता है। ऐसी स्थिति में नये सामाजिकजीवन तथा नये पारम्परिक दर्शन की विधा को उभारने का प्रयत्न करना, इस विभाग का दायित्व बन जाता है और इस क्रम में इन सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक चिन्तनों का यहां स्वरूप प्रस्तुत है । पाठकगण कृपया इन पर ध्यान देकर जो उचित समझें, ग्रहण करें तथा समाज को भी मोड़ने का प्रयत्न करें। संस्कृत विश्वविद्यालय के चिन्तन का समाज में बड़ा महत्त्व होगा, क्योंकि हमारी परम्परा इस बात से वाकिफ है कि हमारा मूल आधार संस्कृत तथा उसकी स्मृतियां एवं धर्मशास्त्रादि हैं, यदि स्मृतियों एवं धर्मशास्त्रों तथा दर्शनों से आज के आचरणीय नये मूल्यों के विधान मिल जाते हैं तो इन्हें परम्परागत लोगों को अपनाने में कोई अटपटापन नहीं लगेगा । यह प्रयास प्रस्तुत परिसंवाद में किया गया है ।
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