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गांधीजी का नीति-धर्म
प्रो. जगन्नाथ उपाध्याय महात्मागांधी शास्त्रीय अर्थ में धार्मिक नहीं थे। परम्परा से धर्म का अर्थ है एक विशेष प्रकार का संस्कार एवं कर्मकाण्ड । गांधीजी सिर्फ नैतिक थे। उन्होंने नीति से भिन्न धर्म की सत्ता को स्वीकार नहीं किया। इसलिए उनकी दृष्टि में संस्कारों एवं कर्मकाण्डों के आधार पर धर्म का विभाजन नहीं हो सकता। इसीलिए उनका सम्पूर्ण जोर सभी धर्मों में नैतिकतत्त्वों की एकता के अन्वेषण की ओर था। उनकी दृष्टि में धर्म कोई पूर्व सिद्ध तत्त्व नहीं है, प्रत्युत वह उपार्जनीय एवं अन्वेषणीय मानवीय गुण है। उन्हें धर्म एवं सम्प्रदायों की परस्पर तुलना या खण्डन मण्डन की आवश्यकता नहीं थी, इसलिए उनका प्रयास है 'सब के सत्यों का संगठन कर मानव धर्म प्रस्तुत करना' । गांधीजी स्वधर्म की श्रेयस्करता और परधर्म की भयावहता के पक्ष में नहीं थे। उनकी दृष्टि में पर-धर्म का रक्षा भी स्वधर्म के लिए आवश्यक है। परधर्म की भयावहता में परनाश को सम्भावना निहित है, जो गांधीजी के अनुसार धर्मों में प्रविष्ट हिंसा-वृत्ति है। इस स्थिति में धर्म के विकास के उद्देश्य से पर धर्म का भी रक्षण अनिवार्य हो जाता है । गांधीजी एक अखण्ड सार्वभौम धर्म की अवतारणा के लिए सीमित धर्मो के उच्छेद या अवमूल्यन करने के सिद्धान्त को स्वीकार नहीं करते। वे परमधर्म या अखण्ड धर्म के लिए स्वधर्म एवं स्वजीवन-निष्ठा को अत्यन्त आवश्यक मानते हैं, क्योंकि उनकी दृष्टि में विविधता का नाश न तो अपेक्षित है और न हो सकता है। इस आधार पर गांधी जी अपने स्वधर्म और दूसरे के स्वधर्म को अभिन्न बनाना चाहते हैं। इसीलिए वे कहते हैं कि मैं सच्चा मुसलमान हूं, क्योंकि सच्चा हिन्दू हूं। इसके पीछे नीति धर्मों की एकता का सिद्धान्त है, कर्मकाण्ड, दीक्षा या विशिष्ट संस्कारों का नहीं। श्रद्धा की श्रेष्ठता धर्म के निर्णय के लिए शास्त्रवाद एवं बुद्धिवाद को गांधीजी नितान्त अपर्याप्त मानते हैं। इसके लिए उन्होंने श्रद्धा को निर्णायक तत्त्व माना है। वह सत्यान्वेषण के लिए श्रद्धा को अनिवार्य एवं पर्याप्त मानते है। गांधीवाद में जीवन के प्रति निष्ठा ही श्रद्धा है, क्योंकि जीवन स्वयं में एक ध्रुव सत्ता है। जीवन ही मनुष्य का अन्तिम साध्य और वही आरम्भिक साधन भी है। उक्त प्रकार की श्रद्धा की अपेक्षा शास्त्र और बुद्धि मनुष्य के लिए बहिरंग साधन हैं। यद्यपि शास्त्रवाद एवं बुद्धिवाद का विकास भी जीवन के लिए ही है, फिर भी उसके कारण बाद-विवाद एवं आग्रह प्रधान बन जाता है और जीवन और उसकी समस्यायें गौण । यहां तक कि शास्त्रवादी एवं बुद्धिवादियों को अपने आग्रह विशेष के सरक्षण में ही जीवन का वास्तविक आभास मिलने लगता है। यह इतना तीब्र भी हो जाता है कि वे आत्महीन शरीर की तरह अवास्तव धर्म की पूजा करने लगते हैं।
परिसंवाद-३
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