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गांधी चिन्तन की सार्थकता
का नागरिक यह समझे हि वह ' स्वयं अपने भाग्य का विधाता है, अपने प्रतिनिधि द्वारा स्वयं अपना विधायक है" । प्रत्येक नागरिक यह भी समझे कि उसके लोकतान्त्रिक अधिकार सामाजिक कर्तव्य से प्रवाहित होते हैं और उसे अपने को भारत का सेवक समझ 'सेवा की भावना' से भारत के हित में 'स्वतन्त्रता' आत्मानुशासन के साथ अपने कर्तव्यों और अधिकारों का प्रयोग सामूहिक स्वतन्त्रता की पहली शर्त है, इसलिए लोकतन्त्रवादी को आत्म अनुशासी होना ही चाहिए। वे कहते थे कि लोकतन्त्र को ऐसे मतदाताओं की जरूरत है जो सब जातियों धर्मों और सम्प्रदायों में से अच्छे और सच्चे, तथा ईमानदार क्षमता सम्पन्न और आत्मत्यागी व्यक्तियों को अपना प्रतिनिधि चुने ।
गांधीजी चाहते थे कि विधानसभा और संसद को प्रश्नों के सुलझाने का यन्त्र समझा जाय तथा व्यक्तिगत कटाक्ष और ध्वंसात्मक आलोचना से बचा जाय । 'अवसरवादिता' का अनुसरण न किया जाय । वे चाहते थे कि मन्त्री व्यक्तिगत और सार्वजनिक आचार-विचार के सम्बन्ध में चौकस रहें । सामाजिक और नैतिक उन्नति को ही राजनीतिक कार्य का ध्येय समझे । वे कहते थे कि मन्त्री अपने दल के उद्देश्य को अवश्य बढ़ाएं, पर सारे राष्ट्र की कीमत पर ऐसा कभी न करें, हर कीमत पर वही करें, जो न्यायसंगत हो ।
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गांधीजी स्वीकार करते थे कि लोकतन्त्र में जीवन का कोई भी अंग राजनीति से अछूता नहीं रहता, पर कहते थे --जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में जनता को अपनी दशा सुधारने के योग्य बनाने के उपकरणों में राजनीतिक शक्ति केवल एक है, तथा जो राष्ट्र अपना काम राज्य के हस्तक्षेप के बिना ही शान्तिपूर्वक और प्रभावपूर्ण ढंग से कर दिखाता है उसे ही सच्चे अर्थो में लोकतान्त्रिक कहा जा सकता है। इस तरह गांधीजी चाहते थे कि विभिन्न सार्वजनिक सेवाओं के लिए स्वैच्छिक रचनात्मक संस्थाएं स्थापित की जाएँ, राष्ट्रीय विकास में संलग्न अभिन्न संस्थाओं में आपस में 'पूर्ण सहयोग' हो, तथा राजनीतिक कार्य और स्वैच्छिक सार्वजनिक संस्थाओं द्वारा संचालित रचनात्मक कार्यक्रम को विरोधात्मक न समझा जाय ।
गांधीजी के ये सभी विचार बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं । इन सब का अनुसरण नितान्त आवश्यक है । इनका पालन करने पर हमारा लोकतन्त्र जो संसार का सबसे बड़ा लोकतन्त्र है, संसार का सर्वोत्तम लोकतन्त्र बन जायेगा ।
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परिसंवाद - ३
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