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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं
व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन को आत्मनियन्त्रित कर अपने व्यवहार से जनता को आत्मनियन्त्रण की प्रेरणा दें, (५ । सात वर्ष की बुनियादी शिक्षा द्वारा बच्चों को चरित्र गठन तथा श्रम के गौरव की शिक्षा दी जाय, उनके शरीर, बुद्धि और भावनाओं का समन्वित विकास किया जाय एवं उनमें किसी समाजोपयोगी उद्योग द्वारा सादा सच्चरित्र जीवन विताने की क्षमता पैदा की जाय ।
अराजकता अर्थात् राजविहीनसमाज की कल्पना बहुत पुरानी है। चिरकाल से इसकी चर्चा होती आयी है। पर अब तक किसी देश में यह कल्पना व्यावहारिक रूप धारण नहीं कर पायी है। बहुत से विद्वानों का यह विचार है कि व्यक्ति और राष्ट्र का जीवन इतना परिशुद्ध और इतना आत्मनियन्त्रित हो कि फिर सामाजिक और सार्वजनिक जीवन को राज्य के नियन्त्रण की कोई आवश्यकता ही न रहे यह एक ऐसा विचार है कि जिसकी व्यावहारिकता संदिग्ध है। व्यक्ति और राष्ट्र के जीवन में कुछ न कुछ अपूर्णताएं बनी ही रहेंगी और उनके द्वारा सामाजिक जीवन में अशान्ति पैदा न हो इसके लिए राज्य के नियन्त्रण की थोड़ी बहुत आवश्यकता भी रहेगी। विद्वानों का यह भी कहना है कि सार्वजनिक सेवा भी राज्य का एक लक्षण है और वह आधुनिक जगत् में धीरे-धीरे सार्वभौमिक समाज का 'समाज सेवा संस्थान' बनता जा रहा है। देशव्यापी सार्वजनिक कार्यो के लिए राज्य जैसी देशव्यापी संस्था की आवश्यकता सदा बनी ही रहेगी। अतः राज्य के विलयन की बात न करके जीवन और राष्ट्र की परिशुद्धि के लिए प्रयत्न करना चाहिए, ताकि राज्य समाज नियन्त्रण के स्थान पर समाज सेवा के कार्य में अधिक संलग्न हो सके। गांव स्वराज्य का विचार बहुत उत्तम है। उसकी नींव पर ही भारतीय लोकतन्त्र का सबल निर्माण हो सकता है। पर देश को विकेन्द्रीकरण के साथ साथ एक ऐसे केन्द्र की भी आवश्यकता है जिसका देश की सारो जनता से सीधा सम्बन्ध हो, जो सारे राष्ट्र को अपने कार्यों के लिए उत्तरदायी हो, और जिसमें इतनी शक्ति और क्षमता हो कि वह सारे राष्ट्र को एक सूत्र में बांधे रख सके, बाह्य आक्रमण से देश की र८ कर सके तथा राष्ट्र की देशव्यापी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके। बुनियादी शिक्षा की व्यवस्था भी कतिपय महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तों पर आधारित है। मन, बुद्धि और शरीर के समन्वित विकास द्वारा ही मानव का सर्वांगीण विकास सम्भव है। चरित्र का गठन जीवन और समाज की परिशुद्धि के लिए नितान्त आवश्यक है। बाल्यकाल में ही आत्मनियन्त्रण और सामाजिक चरित्र की शिक्षा-दीक्षा देना जरूरी है। राष्ट्रीय लोकतान्त्रिक चरित्र का निर्माण शिक्षा का महत्त्वपूर्ण उत्तरदायित्व है। समाजोपयोगी उद्योग शिक्षा का उत्तम माध्यम हो सकता है। बहुत से शिक्षाशास्त्रियों ने
परिसंवाद-३
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