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गांधी चिन्तन की सार्थकता
गांधीजी की वर्णव्यवस्था की व्याख्या के सम्बन्ध में विद्वानों में काफी मतभेद है । वर्णव्यवस्था पर आस्था रखने वाले विद्वान् गांधीजी की व्याख्या को भारतीय परम्परा के प्रतिकूल बताते हुए उसकी बड़ी समीक्षा करते हैं । दूसरी ओर जाति विहीन समसमाज के समर्थकों की राय है कि जातिप्रथा की सैद्धान्तिक जड़े वर्णव्यवस्था में है, एक का अन्त कर दूसरे को प्रतिष्ठित करना या बनाये रखना असम्भव है । जाति-विहीन समाज के लिए वर्णविहीन होना भी आवश्यक है । पर श्रीमशरूवाला आदि सर्वोदयी विद्वान् गांधी जी के वर्णधर्म के सिद्धान्त को गांधीजी के चिन्तन और उनकी समाजव्यवस्था का महत्त्वपूर्ण अंग मानते हैं। उधर बहुत से विद्वानों की धारणा है कि यह विवाद निरर्थक है, क्योंकि जातिव्यवस्था से पृथक् वर्णधर्म का पुनरुद्धार कठिन ही नहीं असम्भव है ।
समसमाज के पोषक गांधीजी स्त्री और पुरुष की समता के भी समर्थक थे । उन्हें दुःख था कि पुरुषों ने अहंकार में पराभूत हो स्त्रियों को उनके गौरव से वंचित कर उनके साथ-साथ सारे समाज का अधःपतन किया है। गांधीजी की धारणा थी कि स्त्रियों को अबला कहना उनके साथ अन्याय है । शारीरिक शक्ति में पुरुषों की तुलना में वे भले ही कमजोर हों, पर नैतिक शक्ति में तो वे पुरुषों से कहीं अधिक श्रेष्ठ हैं। स्त्रियों के गौरव को स्वीकार करके ही 'आंशिक पक्षाघात' के रोग से समाज की रक्षा की जा सकती है। इसके लिए जरूरी है कि हम भारतीय साहित्य और शास्त्रों के उन वाक्यों को भूल जायें, जिनमें अतिरंजित ढंग से स्त्रियों की निन्दा की गयी है, उन सामाजिक रीतियों और प्रथाओं में सुधार करें, उनके उत्कर्ष की समुचित सुविधा की व्यवस्था करें तथा सार्वजनिक कामों में उनके सक्रिय सहयोग का स्वागत करें । गांधीजी चाहते थे कि स्त्रियों को ऐसी शिक्षा दी जाय कि वे अपने कौटुम्बिक और सार्वजनिक कर्तव्यों का ठीक तौर पर पालन कर सकें । कुटुम्ब ही स्त्रियों का विशिष्ट कार्यक्षेत्र है । स्त्री-शिक्षा की व्यवस्था में कुटुम्ब सम्बन्धी शिक्षा की समुचित व्यवस्था नितान्त आवश्यक है । गांधीजी परिवार नियोजन आवश्यक समझते थे । पर उनके में 'आत्मसंयम द्वारा ही परिवारनियोजन' श्रेयस्कर हो सकता है। इसी में समाज का स्वास्थ्य, गौरव तथा नैतिक और आध्यात्मिक उत्कर्ष है । प्राचीन सामाजिक व्यवस्था के समर्थक स्त्रियों के उत्कर्ष सम्बन्धी गांधीजी के बहुत से विचारों को शास्त्र विपरीत बताकर उनका तिरस्कार कर सकते हैं, पर उनका अनुसरण करके ही भारतीय समाज आधुनिक युग में उन्नति कर सकता है, अपने खोये हुए गौरव को पुनः प्राप्त कर सकता है ।
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परिसंवाद - ३
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