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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं
मात्रा को बढ़ाकर और शुद्धतर बनाकर ही साध्यों की प्राप्ति में प्रगति होती है। ज्ञान के क्षेत्र में ऐसा ही होता आया है। प्रसिद्ध भारतीय वैज्ञानिक जगदीशचन्द्र बसु ने जब इस बात का आविष्कार किया कि वनस्पतियों में भी प्राणियों की भांति चेतना होती है तो अन्य वैज्ञानिकों ने उनकी इस घोषणा को इसी रूप में स्वीकार नहीं किया। उन्होंने यह मांग की कि जगदीशचन्द्र वसु किन साधनों से इस नतीजे पर पहुचे हैं और श्रीवसु ने वैज्ञानिकों के सम्पुख उन यान्त्रिक उपकरणों का प्रदर्शन किया, जिनके द्वारा वह वनस्पतियों में प्राणस्पन्दन और प्राणियों की भाँति चेतना का प्रवाह देखते थे। वैज्ञानिकों ने यह टीका की कि वनस्पतियों का स्पन्दन विल्कुल सर्वथा प्राणियों की ज्ञानवाहिनी नाड़ियों से प्रवाहित होने वाली चेतना के समकक्ष नहीं है। उसे स्पन्दन भले ही कहा जाय, पर चेतना नहीं कहा जा सकता। सारांश यह कि वैज्ञानिकों ने श्रीवसु के प्रमाण को देखकर उनके प्रमेय के स्वरूप और उसकी सीमा को निर्धारित किया। ज्ञान के क्षेत्र में जितना भी शोध या आविष्कार होता है, उन सब में यही प्रक्रिया चलती है।
अब देखना यह हैं कि जब साध्यों के सन्दर्भ को छोड़ कर साधनों का कोई अर्थ नहीं होता तो फिर साधनों को गांधीदर्शन में इतना महत्त्व क्यों दिया गया ? उन्हें साध्यों से भी उपर मान लिया गया। बात यह है कि एक बार जब हम अपने साध्यों को निर्दिष्ट कर लेते तो फिर मनुष्य को अपनी सारी चेष्टाओं को अनुकूल साधनों के विकास में ही करना होता है। यहां पर श्रीमद्भगवद्गीता का यह कथन प्रासंगिक है। “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन" फल तो साध्य है जो हमारे लिए वांछित है, किन्तु वे अपने हाथ में नही हैं । यह तो साधनों का विकास और प्रयोग होने के बाद पता चलेगा कि उनसे कैसा और कितना फल प्राप्त होता है ? इसलिए हमारा मुख्य कार्य अनुकूल साधनों का आविष्कार और विकास करना ही हो जाता है । इसीलिए गांधीजी कहते हैं कि हमें शुद्ध साधनों के प्रयोग पर ही अधिक ध्यान देना चाहिए, फल तो तदनुकूल ही होंगे। इसलिए आरम्भ में एक बार उनके निर्धारित हो जाने के बाद फिर उनकी चिन्ता करने की आवश्यकता नही है । कर्मक्षेत्र में यह बात यहाँ तक चली जाती है कि साधन और साध्य में कोई भेद ही नहीं रह जाता। अगर साधन अहिंसा है तो उससे जो फल प्राप्त होगा, वह भी अहिंसा ही होगा अर्थात् अहिंसात्मक एवं शान्ति साधनों से जो समाज प्राप्त होगा वह भी, और वही, अहिंसात्मक एवं शान्तिमय समाज होगा। यदि ऐसा नहीं होता या पूर्णरूप से नहीं होता तो यह मानना पड़ेगा कि हमारे साधनों में कमी है और हमें उनको पूर्णतर बनाना पड़ेगा। शायद इसी प्रकार हम अधिकाधिक
परिसंवाद-३
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