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मौलिक दर्शन की सम्भाव्य दिशाएं
लिए अवकाश ही कहाँ ? यही कारण है कि हमने लगभग सहस्र वर्षों तक रोमहर्षण अत्याचार मूकभाव से सहा है और साहित्य में भरसक 'उफ !' भी नहीं आने दिया है। बुद्ध की दुःख चेतना त्रासदी के उद्भव के लिए अत्यन्त उर्वर भूमि सिद्ध हो सकती थी, किंतु उनकी देवत्वापत्ति के कारण उनका हैन्दवीकरण हो गया और अन्ततः त्रासबोध पना ही नहीं सका। वस्तुतः बुद्ध की दुःव-चेतना और नैरर्थक्यदृष्टि भारतीय इतिहास में एक अनहोनी-सो घटना है। शायद इसीलिए उन्हें ठीकठीक समझा ही नहीं गया। समाज और सृष्टि व्यवस्था के साथ पूर्णतादात्म्य और मनमेल तथा उनके प्रतिपूर्ण सन्तोष और निष्ठा की भावना भारतीय संस्कृति की अन्यतम विशेषता रही है। अतएव यहाँ न तो सुकरात से समान सुधारक दिखलायी देते हैं, न मार्स के समान विद्रोही । सृष्टि के साथ इस प्रकार सन्धि रखने वाली संस्कृति कोई भी क्रान्तिकारी कदम उठाने के अयोग्य हो जाती है।
वस्तुतः हमारे यहाँ अपरीक्षित सस्ते नुस्खे दर्शन के क्षेत्र में बहुत चलते हैं। सृष्टि समझ में नहीं आयी तो उसका निषेध कर दिया गया। कहा गया कि सृष्टि हुई ही नहीं, किन्तु इतनी बड़ी सृष्टि छिपाई कहाँ जाय ? हत्या कर डालना तो सरल है किंतु लाश कहाँ छिपायी जाय ? अतः सृष्टि को माया के हवाले कर दिया गया। यह नहीं सोचा गया कि माया को भी कठघरे में खड़ा होना पड़ेगा। माया को समझना, सृष्टि को समझने से कम कठिन नहीं है। इसी प्रकार आत्मा का निषेध तो कर दिया गया, किंतु 'निर्वाण', 'तथागतगर्भ', आदि के नाम से उसे गुप्त रूप से स्थान देना पड़ा। ऐसे सस्ते नुस्खों से पाखण्ड बढ़ता है।
एक अन्य दृष्टि से दर्शनों को दो श्रेणियों में बाँटा जा सकता है--सूचनात्मक ( Informative) वेदनात्मक (epistemic) अथवा शास्त्रीय (academic) तथा परिणामनात्मक ( Transformative ), रेचनात्मक ( cathactic ) अथवा उपचारात्मक ( therapentic)। दर्शन को कुछ लोग, विशेषतः प्राचीनपश्चिमी दार्शनिक केवल कौतूहल-निवर्तक विद्या समझते हैं, जब कि कुछ अन्य लोग, विशेषतः प्राचीनभारतीयदार्शनिक, उसे जीवन का संस्कारक मानते हैं । आन्वीक्षिको की प्रशंसा में कौटिल्य कहता है
प्रदीपः सर्वविद्यानामुपायः सर्वकर्मणाम्,
आश्रयः सर्वधर्माणां शश्वदान्वीक्षिकी मता ॥ १. कौटलीय अर्थशास्त्र १.२.१२
परिसंवाद-३
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