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अध्यात्म और आधुनिक समाज
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बना सकें। श्री शंकराचार्य ने ब्रह्मसू त्रभाष्य में स्पष्ट रूप से अंकित कर दिया कि उन्होंने सूत्रभाष्य का भाष्य क्यों किया। उनकी यह धारणा थी कि यदि स्पष्टरूप से वेदान्त सूत्रों एवं श्रुतिवाक्यों का तात्पर्य नही लिखा जायेगा तो विपरीत अर्थ समझ लेने के कारण बहुत से लोग श्रेय से वंचित ही नहीं होंगे, वरन् अनर्थ को भी प्राप्त हो जायेंगे। अन्ततोगत्वा यही सारतत्त्व' दर्शनशास्त्र का प्रतीत होता है कि मिथ्या अनात्मतादात्म्य को निवृत्त करके आत्मस्वरूप का निश्चय कराना। यही भाव महर्षि गौतम ने भी अपने इस सूत्र से व्यक्त किया- "दुःखजन्मप्रवृत्तिदोषमिथ्याज्ञानाननामुत्तरोत्तरापाये तदनन्तरापायादपवर्गः' । ब्रह्मसूत्र में महर्षिव्यास ने स्पष्ट कर दिया है कि जो हम लोगों को स्वाभाविक ज्ञान हो रहा है इसमें भी आत्म प्रतीति है ही किन्तु वह आवृत्त है, साधन के पश्चात् आविर्भूत करना पड़ता है" आविर्भूतस्वरूपस्तु।' गीता में भगवान् योगेश्वर श्रीकृष्ण ने स्पष्ट कर दिया है कि अज्ञान के कारण आत्मा का यथार्थरूप निखर नहीं पाता है। उसको निश्चय करने के लिए ही दर्शन और दार्शनिक की अपेक्षा होती है । अज्ञानेनावृत्तं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः। उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदशिनः। उपनिषद् ने भी इन्हीं भावों को स्पष्ट किया है
तद्विज्ञानार्थ गुरुमेवाभिगच्छेत् श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम् । एक बात यहाँ कह देना अत्यावश्यक होगा कि कुछ ऐसा प्रवाद व्याप्त हो गया है कि भारतीय दर्शन का जो मुख्य विषय' अध्यात्म है उससे समाज का कोई सम्बन्ध ही नहीं है। विशेषतः आधुनिक समाज जो कि प्राचीनता के सुव्यवस्थित मार्ग से सर्वथा विपरीत है ऐसे समाज के लिए तो भारतीय दर्शनों या अन्य दर्शनों का कोई लगाव है ही नहीं। अतः एक नया दर्शन का स्वरूप सामने लाना चाहिए। यहाँ तक कहने का साहस या भ्रम तभी संभव है जब कि हम दर्शन के तत्त्व को एक देशीय समझ बैठत हैं । वहदारण्यकोपनिषद् का नाम सुनते ही किसी के मन में यह भाव कि इसका श्रवण, मनन, निदिध्यासन घोर अरण्यस्थली में ही सम्भव है। तब उस दर्शन का क्या अपराध है। भारतीय दर्शन के मुख्य ग्रन्थ गीता में कहा गया 'मामनुस्मर युद्धच' 'न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यम् ॥ भगवान् श्रीकृष्ण जो कि गीता के उपदेष्टा है उन्होंने स्पष्ट कर दिया है कि दार्शनिक अपने दर्शन चिन्तन प्रसूत दिव्य ज्ञान से समाज को कुमार्ग से विमुख कर सन्मार्ग पर स्थापित कर समाज में शान्ति सुव्यवस्था की अवस्था लाता है । लोकसंग्रह शब्द से यही तात्पर्य विवक्षित है।
प्राचीन आख्याएँ जो इस विषय में साक्षी हैं उनसे यही उपलब्धि होती है कि दर्शन और दार्शनिक समाज से सदा सर्वथा सम्बद्ध ही रहते थे। जनक, याज्ञवल्क्य
परिसंवाद-३
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