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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं धनुर्विद्या. नाट्यशास्त्र, धर्मशास्त्र, पुराण आदि का प्रणयन भी इसी उपयोगितावादी उद्देश्य से हुआ। आधुनिक युग में सभ्यता के विकास के साथ-साथ नये-नये शास्त्रों का प्रादुर्भाव सामाजिक उपयोगिता के लिए हुआ। जैसे इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, नृतत्वशास्त्र, भाषा-विज्ञान, मनोविज्ञान, भूगर्भशास्त्र, खगोलशास्त्र, रसायनविज्ञान, जीवविज्ञान, वनस्पतिविज्ञान, शरीरविज्ञान, तथा विविध प्रकार के प्राविधिक शास्त्र आदि। ज्ञान, विज्ञान और प्रविधि सम्बन्धी इन सभी शास्त्रों का उद्देश्य प्रशिक्षण देकर ऐसे विशेषज्ञों को तैयार करना है जो प्राकृतिक साधनों द्वारा वैज्ञानिक और प्रयोग सिद्ध पद्धतियों का उपयोग कर उन्हें मानव के भौतिक सुख के हित में नियोजित कर सकें।
इन आधुनिक शास्त्रों के विकास के पूर्व भी ये विद्यायें वर्तमान थी किन्तु उनका शास्त्र नहीं था, वे वंशानुक्रम परम्परा से चलती आ रही थी। इन्हीं विद्याओं के क्षेत्र में अनेक वैज्ञानिक आविष्कार भी किये गये, जिनका उपयोग मानव के हित के लिए किया जाता है।
चेतना के विकास का चतुर्थ स्तर दर्शन का है। इस स्तर पर ज्ञान की उपलब्धि उपयोगिता के लिए नहीं, केवल ज्ञान के लिए होती है। इस तरह दर्शन का लक्ष्य केवल सत्यान्वेषण या तत्त्वान्वेषण है। यह दूसरी बात है कि दर्शन द्वारा उपलब्ध ज्ञान समाज के हित के लिए भी प्रयुक्त हो। किन्तु दार्शनिक का लक्ष्य तत्त्वान्वेषण ही है। इस अन्वेषण की प्रक्रिया बौद्धिक और तर्कसंगत होती है। अतः हम कह सकते हैं कि ज्ञान-विज्ञान सम्बन्धी शास्त्र जहाँ समाप्त होते हैं, वहाँ से दर्शन का प्रारम्भ होता है। फिर भी दर्शन में चेतना के पूर्ववर्ती तीनों स्तरों का ज्ञान सामग्री या समवाय के रूप में वर्तमान रहता है। दार्शनिक की प्रतिभा दर्शन का निमित्त कारण होती है जो वैज्ञानिक और शास्त्रज्ञ के बौद्धिक पद्धति और तार्किकता का प्रयोग तो करता है पर उपयोगिता की सीमा तक जाकर रुक नही जाती, बल्कि और भी ऊँचाई पर पहुँच कर चरम सत्य को बलपूर्वक उपलब्ध करती अथवा उपलब्ध करने का दावा करती है।
चेतना का पंचम स्तर पश्यन्तीवाक् या सम्यकज्ञान का स्तर है जो साधना की सरणियों को पार करने के बाद समाधिदशा में उपलब्ध होता है। इस स्तर पर ज्ञान की उपलब्धि प्रातिभज्ञान दिव्यदृष्टि ( Vision ) द्वारा होती है। चरम सत्य या परमतत्त्व का साक्षात्कार इसी स्थिति में होता है और इसी ज्ञान को प्रज्ञान या वास्तविक दर्शन कहा जा सकता है। यह ज्ञान कार्य-कारण-परम्परा
परिसंवाद-३
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