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संस्कृति-दर्शन सम्भावनाये और स्वरूप
इसमें से पहला स्तर मानवेतर प्राणियों अथवा आदिम मानव की अविकसित चेतना का स्तर है। जिसमें रचना धर्मिता सहजातवृत्ति और सहजज्ञान की प्रेरणा पर आधारित होती है । मधुमक्खी का मधुछत्र, बया का घोंसला, दीमकों का बल्मीक तथा इसी प्रकार के अन्य पशु पक्षियों के कार्य अद्भुत और श्रमसाध्य होते हुए भी उनकी बौद्धिक क्रिया के परिणाम नहीं हैं। ये उनकी सहजात प्रवृत्ति और सहज ज्ञान के द्वारा सम्पन्न होते हैं ।
द्वितीय स्तर वंशपरम्परागत ज्ञान का होता है जो मानव सभ्यता के आदिम काल में ही प्रारस्भ हो गया था और आज तक वर्तमान है। आदिम युग में पाषाणकाल से लेकर ताम्रयुग तक मनुष्य ने सभ्यता के जिन उपकरणों का विकास किया उन्हें प्रत्येक कबीले के लोग वंश-परम्परागत रूप में सीखते रहते थे। प्रस्तरास्त्र, गुफाचित्र, गृह-निर्माण मृत्भांड-निर्माण आदि से लेकर घरेलू उपयोग की विविध वस्तुओं
औजारों और यंत्रों तक का विकास वंशपरम्परागत रूप में ही हुआ और कृषि-युगीन समाज में श्रम-विभाजन की प्रथा प्रारम्भ हो जाने तथा वर्णों और जातियों का विभाजन हो जाने के बाद विविध पेशेवर जातियों में अवशिष्ट रह गया। तेली, कुम्हार चमार, कोयरी, आदि जातियों में वे उपयोगी कलायें या विद्याये वंशपरम्परागत रूप में आज भी चली आ रही हैं। वैदिक काल में भारत में ब्राह्मणों को नयो विद्या का, सूत-मागधी को इतिहास-पुराण का, राजन्य वर्ग को युद्ध-विद्या का, वैश्य वर्ग को व्यापार-धन्धो का और शूद्रों को कृषि-कर्म एवं कला कौशल का ज्ञान, वंश परम्परा द्वारा ही प्राप्त होता था। इनका प्रारम्भ में न तो शास्त्र था न इनके प्रशिक्षण की व्यवस्था थी। यह प्रथा आज भी अनेक देशों में किसी न किसी रूप में वर्तमान है।
चेतना का तीसरा स्तर वह है जिसमें विभिन्न विद्याओं और कलाओं के शास्त्र बन जाते हैं। ये शास्त्र परिश्रम और ज्ञान के प्रश्रय के उद्देश्य से बनाये जाते हैं। किसी विद्या का शास्त्र बनने का यह अर्थ नहीं कि उसके पूर्व वह विद्या थी ही नहीं। इसके विपरीत उससे यह प्रमाणित होता है कि ये विद्यायें वर्तमान में थी जिसका सम्यक् अध्ययन करके तार्किक पद्धति से उनके अवयवों का वर्गीकरण स्वरूपनिर्धारण और विवेचन करके उनके सम्बन्ध में सिद्धान्त बनाये गये तथा उनके , लक्षणों और नियमों का निर्धारण किया गया। भारत में उत्तर वैदिक काल में शिक्षा, निरुक्त, व्यवस्था, ज्योतिष, कल्प और छन्दस नामक शास्त्रों का विकास वैदिक ज्ञान के संरक्षण एवं प्रचार तथा विद्यार्थियों एवं शिष्यों के लिए ही हुआ था।
परिसंवाद-३
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