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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं
नया जीवन-दर्शन-अस्तु, अपनी बात को वहीं तक सीमित रखें, जहाँ तक दर्शन का जीवन से साक्षात् एवं घनिष्ट सम्बन्ध है। आध्यात्मिक चिन्तन का जीवन से घनिष्ट सम्बन्ध है, इसे प्रायः दुहराया जाता है किंतु प्रश्न है कि क्या आध्यात्मिक मान्यताओं के आधार पर हमारे पास कोई सुव्यवस्थित जीवन-दर्शन है ? 'नास्ति' में इसका उत्तर ठीक नहीं होगा, किन्तु 'अस्ति' के उत्तर से कुछ तथ्य छिप जायेंगे। स्थिति को स्पष्ट करने के लिये इस प्रश्न का समस्यात्मक रूप अधिक खुलासा किया जाना चाहिए, जिससे जीवन के प्रसंग में आकलन किया जा सके कि दर्शनों की कौन सी समस्या अत्यन्त अपेक्षित हो गयी है और जिसे आज प्रमुखता मिलनी चाहिए।
ईश्वर है या नहीं, आत्मा है या नहीं, जगत सत्य है या नहीं, परलोक से सम्बन्धित कर्म और कर्म फल है या नहीं, भारतीय दर्शनों के चिन्तन का यह आधुनिक संदर्भ नहीं रह गया है। किन्तु ऐसा कहने का यह अर्थ नहीं है कि आज मानव-जीवन की ये मान्यतायें कथमपि प्रभावित नहीं कर रही हैं, अथवा जिन समस्याओं को हम जीवित एवं प्रमुख समझते हैं उनको ये परम्परागत विश्लेषण किसी दशा में प्रभावित नहीं करेंगे। इसके विपरीत तथ्य यह है कि वे तत्त्व-विश्लेषण पहले से भी अधिक प्रभावकर सिद्ध हो सकेगें, यदि जीवन के सन्दर्भ में उनका पुनमूल्यांकन किया जाय। यहां तक कि चिन्तन का यह नया सन्दर्भ उन प्राचीन मान्यताओं के अध्ययन को नयी दिशा में सोचने के लिये विवश कर सकता है।
भारतीय दर्शनों ने सारे मतभेदों के बाद भी जो कुछ समान मान्यतायें स्वीकार की हैं, जो जीवन के सन्दर्भ में उल्लेखनीय रूप से प्रभावहीन रही हैं और भी पूर्ववत् उदासीन ही पड़ी हैं. उनके आधार पर मूलभूत मान्यताओं की यदि परीक्षा नहीं की जायगी, तो वे जीवन का अपने असन्तुलन एवं द्वन्द्वों से अधिकाधिक विकृत करती जायेंगी। उदाहरण के रूप में यहाँ कुछ दार्शनिक एवं आध्यात्मिक मान्यताओं की चर्चा करना इस स्थिति को स्पष्ट करने के लिये आवश्यक है। कुछ मान्यतायें हैं, जैसे-समत्व, एकत्व, मोक्ष, अहिंसा आदि, जिन्हें सभी दर्शनों ने किसी न किसी रूप में स्वीकार कियो । किन्तु इन निरपवाद तत्त्वों का सामाजिक और धार्मिक जीवन में कभी प्रयोग नही किया गया। आश्चर्य तब होता है. जब कुछ अपवादों को छोड़कर उसके सामान्यीकरण का कभी प्रयत्न तक नहीं किया गया। फलतः दर्शन में समत्व किंतु जीवन के सभी आयामों पर घृणित वैषम्य फैला रहा, दर्शन में अद्वैत या एकत्व किन्तु जीवन में समुदायवृत्ति का कोई उल्लेखनीय विकास नहीं हो सका, दर्शन में त्रिविध दु:खों के विनाश के साथ मोक्ष या निर्वाण की
परिसंवाद-३
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