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पौर्वात्य तथा पाश्चात्य चिन्तन धाराओं के समन्वय से नया दर्शन संभव
__डॉ. जयदेव सिंह भारतीय दर्शन मुख्यत: मोक्ष रूपी इष्ट को लेकर चलते हैं। ये मोक्षशास्त्र हैं चाहे उसके मोक्ष का निव ण नाम दें अथवा परमार्थ या मुक्ति। दर्शन के अध्ययन का मुख्य ध्येय निम्न प्रवृत्तियों पर अधिकार प्राप्त करना, शमदम की सम्पत्ति का संग्रह करना और साधना द्वारा चाहे वह भक्ति हो, चाहे ज्ञान, चाहे ध्यान, अपने वास्तविक स्वरूप को प्राप्त करना है।
पाश्चात्यदर्शन केवल बौद्धिक विकास है। उनका तत्त्वज्ञान अधिकतर तर्क और कल्पना पर प्रतिष्ठित है। उन्होंने नीतिशास्त्र को विशेषरूप से अपनाया है और जीवन का ध्येय नैतिक उत्थान को माना है। दुर्भाग्यवश पाश्चात्यदर्शन में भी नैतिकशास्त्र का उतना महत्त्व नही रह गया, जितना कि उसका होना चाहिए था। परिणाम यह हो गया कि पाश्चात्यदर्शन भी अब केवल बौद्धिक विलास रह गया है। किन्तु जिस प्रकार से नागार्जुन ने यह सिद्ध किया कि तर्क के द्वारा हम तथता या तत्त्व को नहीं जान सकते, उसी प्रकार ब्रडले, ह्वाइटहेड इत्यादि आधुनिक पाश्चात्य दार्शनिकों ने भी यह सिद्ध किया है कि परमार्थ या तत्त्व का ज्ञान तर्क द्वारा नहीं प्राप्त किया जा सकता है। किन्तु सभी पाश्चात्य दार्शनिक संसार, इतिहास, सामाजिक जीवन को हेय नहीं मानते। उनका यह विश्वास है कि विश्व के विराट नाटक में सांसारिक जीवन का अपना महत्त्व है और इस महत्त्व को उन्होंने विवर्तनवाद द्वारा समर्थित किया है।
हमारे शास्त्रों का ध्येय सांसारिक जीवन से मुक्ति पाना ही रहा है। उनके अनुसार संसार जरा-मरण का क्षेत्र है और इस जरामरण रूपी दुःख से छुटकारा पाने के लिए प्रयत्न करना जीव का चरम ध्येय होना चाहिए। संसार सर्वथा हेय है यह एक प्रकार से हमारी दृष्टि का पलायनवाद है। इस संसार से भागकर किसी परिसंवाद-३
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