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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं
की सिद्धि के लिए एक सूत्र लिखा किन्तु यह भारतीय दर्शन का स्वरूप लक्षण नहीं है न कोई असाधारण विभाजक धर्म है। किन्तु किसी भी रूप में वर्गीकरण किया जाय तो भी कतिपय दर्शनों के सामान्य परिचय के लिए आस्तिक-नास्तिक शब्द प्रयोग अपरिहार्य है।
३--कोई भी दर्शन चाहे वह भारतीय हो या अभारतीय वह विषय दर्शन से बहिर्भूत नही होता है। जिसे साम्प्रदायिकरूप माना जा रहा है वह उस दर्शन के विषय वैशिष्य का परिचायक हैं, यथा सांख्य न्याय आदि । बाद के दर्शन व्यक्ति के नाम से सम्बद्ध होने के कारण उसके पूर्ववर्ती सिद्धान्त भी साम्प्रदायिक दर्शन के रूप में माने गये हैं। किन्तु पूर्व में ये इसलिए विषय परक रहे कि उन्हीं विषयों के अध्ययन से सम्बद्ध अधिकारी अपने प्रयोजन की सिद्धि के लिए उस दार्शनिक चिता में अपने को केन्द्रित कर सके। अतः पूर्व का दर्शन अपने विषय के आधार पर नाम से निर्दिष्ट है। किसी रूप में भी वर्गीकरण हो, विषय सम्बद्ध दार्शनिक संज्ञा का परिहार सम्भव नहीं। इतना सत्य है कि जैन और बौद्ध दर्शन जो व्यक्ति सापेक्ष है उनको विषय सापेक्ष नाम से निर्दिष्ट किया जा सकता है। और इससे सम्प्रदाय का संकीर्ण अर्थ परिष्कृत हो जायेगा। यद्यपि यह आशंका की जा सकती है कि परवर्ती काल में शंकर, रामानुज के आधार पर दर्शनों की परिभाषा दी गई है किंतु यह नहीं भूलना चाहिए कि ये दर्शन बादरायण सूत्र के प्रयोजन परिवेश में परिव्रहित अद्वैत, विशिष्टाद्वैत आदि विषय सम्बद्ध वर्गीकृत हैं जो बाद में मठों के आधार पर नाम से परिचित हो गये।
४-जहाँ तक चतुर्थ प्रश्न है यह आरोपित है वेद के मंत्र भागों में ही सभ्यता और संस्कृति के आधार पर दार्शनिक चिंता उपलब्ध है। यह कोई उपनिषद् कालीन ज्ञान धारा नहीं। निःशंक होकर बहुत दिनों से ही भारतीय ज्ञानधारा के सम्बन्ध में यह आरोप है कि वेद का मंत्र भाग मात्र धार्मिक चिंता एवं याज्ञिक आलोचनाओं से परिपूर्ण है। इतना ही नहीं यह भी आरोप है कि यह असम्बद्ध प्रलाप और निःसार चिंता से परिपूर्ण है। किंतु वेद के मंत्रों के अध्ययन से यह सिद्ध हो चुका है कि भारतीय ज्ञानधारा की मूलभित्ति वेद का मंत्र भाग है। भारतीय दार्शनिक चिंता का बीज मंत्रभाग में निहित है और भारतीय सभ्यता-संस्कृति का अनन्य साधारण वैशिष्ट्य उसमें सन्निहित है। राष्ट्रीय और सामाजिक जीवन जागरण से उपलब्ध होता है। अतः भारतीयदर्शन मात्र धार्मिक मान्यताओं का परिपोषक नहीं वरन् विशुद्ध दार्शनिक चिंता प्रवहमान धारा से परिपुष्ट है।
परिसंवाद-३
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