SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 219
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १९४ भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं के फलस्वरूप ध्रुवा के स्मृति की प्राप्ति के साथ नष्ट मोह विधूत मिथ्याज्ञान कर देती है। नष्टमोह निर्वेद की भूमिका है। यह निर्वेद अज्ञान नाश का उच्छेदक शस्त्र एवं discriminating अवस्था है। यही भूमि मनुष्य की unity दशा है, जो व्यष्टि से समष्टि की ओर प्रतिष्ठित करती है गीता की पंक्ति-"ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः । तेषामांदित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम् ॥' के अनुसार यह कहा जा सकता है कि final unity या धर्म की यह परिपूर्णावस्था है। यही से भारतीय दार्शनिक दृष्टि से morality या complete perfection या आध्यास्मिकता (spirituality) की परिसमाप्ति है। व्यक्ति से समाज के लिए दार्शनिक चिन्तन का अर्थ और समाजोद्धार के साथ परम चरम चरितार्थता है। इस विश्लेषण से यह कहा जा सकता है कि दर्शन का मूल लक्ष्य भेव में अभेद दर्शन हैं। बौद्धिक विचार का परम उद्देश्य है, विश्व में सर्वत्र अनुस्यूत एक तत्त्व में अवस्थिति या उपसंहति है। बुद्धि का विचार के आधार पर प्रधान कार्य एक तत्त्व की अवगति है। सर्वभूतेषु येनकं भावमव्ययमीक्षते, यह इक्षण ही दर्शन है। वेद से लेकर जितनी भी आध्यात्मिक चिन्तायें प्रवाहित हुई हैं सभी का एक ही उद्देश्य है, द्वैत दर्शन की एक तत्त्व में उपसंहति अर्थात् Subject & Object रूप दो तत्त्वों को किसी एक Unity अर्थात् तत्त्व में परिपुष्टि । क्रिया विशेष बहुल इस जीवन में एक working principle या Uniform Law या विधि को ग्रहण कर चाहे नैतिक या प्राकृतिक अर्थात् Moral और Natural Law दोनों ही ब्रह्म संभूत अर्थात् एकतत्त्व का द्विधा भाव भासित होने से उन दोनों में एक नित्य तत्त्व प्रतिष्ठित रहता है। यही दर्शन का प्रशस्त चरम परमयान है। यह जो भवचक्र है यह एक ऐसा वृत्त है जिस वृत्त के परिभ्रमण के साथ वह मेरु या भिन्न रूप से परिवर्तन करता हुआ अभेद या Unity and Difference में प्रवेश करता है। इसीलिए परा या अपरा नैतिक और प्राकृतिक विधि Moral Law & Natural Law पृथक रूप में परिदृष्ट होने पर भी यह पुरुष अद्वय पुरुषोत्तम की भूमिका मात्र है। इसलिए महायान या ज्ञानयान का साधक भेद को अभेद सूत्र से आबद्ध रखता है। अन्तर्निहित शक्ति की धारणा मानव में उदय होने के साथ ही एक विराट के साथ सामञ्जस्य स्थापित होता है। कर्मभूमि से आरम्भ मानव ज्ञान क्रमशः 'स्व' में विश्रान्ति लाभ करता है। अर्थात् अपने ही द्वारा मैं संचालित हूँ, यह भावना प्रकृति की अधीनता से परिक्षीण मार्ग पर अवतीर्ण करती है। यह अवस्था क्षीण कर्तृत्व परिसंवाद-३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014014
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy