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भारतीय दर्शनों का वर्गीकरण
१८३ (ख) भारतीय न्याय दर्शन ( न्याय-वैशेषिक, बौद्ध, जैन, मीमांसा आदि )। (ग) भारतीय योगदर्शन ( पातञ्जल, बौद्ध, जैन एवं तान्त्रिक आदि )। (घ) भारतीय वस्तुवादीदर्शन (सांख्य, वैशेषिक, मीमांसा, वैभाषिक,
सौत्रान्तिक, जैन आदि)। यदि विषयपरक वर्गीकरण अपेक्षित है तो उसके पाठ्यक्रमों का निर्धारण किस प्रकार किया जाय?
यों तो कुछ सामान्य गुणों के आधार पर किसी भी प्रकार का वर्गीकरण किया ही जा सकता है किन्तु वह अधिक उपयुक्त तब होगा यदि वगीकरण के लिए कोई निश्चित सिद्धान्त रहे। और वह विकास के क्रम को ध्यान में रखते हुए प्रयुक्त हो । उदाहरण के लिए (क) वर्ग में वर्गीकरण सिद्धान्त का आधार है तत्त्व की संख्या । तब वर्गीकरण का विकास क्रम यों होना चाहिए :
(१) अनेकवाद ( Pluralism) (२) द्वैतवाद ( Dualism ) ( ३ ) एकवाद ( Monism) (४) अद्वैतवाद ( Non-dualism)
चार्वाक वस्तुवादी अनेकवाद ( Realistic Pluralism ) का समर्थक है और उसी के वर्ग में न्यायवैशेषिक, जैन, सर्वास्तिवाद और मीमांसा भी रक्खे जा सकते हैं। किन्तु विकास के क्रम में उसका प्रथम स्थान है क्योंकि वह केवल स्थूल बाह्य जड़ पदार्थ तक ही सीमित है। दूसरे सोपान पर न्यायवैशेषिक आदि को रखना पड़ेगा जो जड़ पदार्थों के अतिरिक्त आत्मा को भी मानता है। तीसरे सोपान पर हम सांख्य और योग को रख सकते हैं जिसमें बाह्य पदार्थों की अनेकता सिमट कर प्रकृति के एकत्व में लीन हो जाती है। इस प्रकार सांख्य-योग द्वैतवादी है। इस वर्ग में मध्व को भी रक्खा जा सकता है। चतुर्थ सोपान पर उस प्रवृत्ति को रक्खा जा सकता है जिसमें द्वैत को हटाकर तत्व के एकत्वस्थापन का प्रयास है जैसे विज्ञान भिक्षु का सांख्य । इसी प्रकार की एकत्ववादी भावना की
परिसंवाद-३
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