________________
१८२
भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं तथा कृती निर्वृतिमभ्युपेतो
नवावनि गच्छति नान्तरिक्षिम् । दिशं न कांचित् विदिशं न कांचित्
___ क्लेशक्षयात् केवलमेतिशान्तिम ॥ ( बुद्धचरित ) निर्वाण ही बौद्धेतर दर्शनों में मुक्ति, मोक्ष कैवल्य, अपवर्ग आदि नामों से विहित हुआ है जो अन्तिम पुरुषार्थ के रूप में रक्खा गया है। निर्वाण प्राप्त हो जाने पर जीवन की कोई समस्या ही नहीं अवशिष्ट रह जाती है-'आप्तकामस्य का स्पृहा ?' तब फिर जीवन की समस्या से विमुखता का क्या अर्थ हो सकता है ? यह आक्षेप भी निराधार लगता है कि भारतीय दर्शन समाज की दृष्टि से पलायनवादी है। बोधिसत्व स्वयं निर्वाण की अवस्था से संयुक्त होकर भी समाज के कल्याण के लिए अपने ऊपर समाज के सभी दुष्कर्मों के भार को वहन करने के लिए उद्यत हैं-'कलिकलुषकृतानि यानि मयि निपतन्तु विमुच्यतां हि लोकः ।' उस दर्शन को पलायनवादी किस अर्थ में कहा जा सकता है जो जीवन से भागने का नहीं बल्कि सन्नद्ध होकर जूझने का उपदेश देता है-'तस्माद्युद्धस्व भारत।
ऐसा समझना उचित नहीं कहा जा सकता है कि भारतीय दर्शन ऐहिक समस्याओं पर ध्यान नहीं देता है। हम इसकी चर्चा पहले ही इस निबन्ध में कर चुके हैं कि दर्शन का ही व्यावहारिक पक्ष धर्म है जिसके आदर्श अभ्युदय अर्थात् लौकिक उन्नति और निःश्रेयस, दोनों ही हैं।
यतोऽभ्युदयनिःश्रेयस सिद्धिः स धर्मः। ( प्रस्तुत प्रश्न में उठाए गये भारतीय दर्शनों के नवीन वर्गीकरण सम्बन्धी विचार पर अपना मन्तव्य हम अन्तिम प्रश्न के विचार के प्रसंग में प्रस्तुत कर रहे हैं।) ८. यह कहाँ तक उचित होगा कि अब भारतीय दर्शनों का नया वर्गीकरण किया जाय। उदाहरण के रूप में क्या निम्नलिखित प्रकार के वर्गीकरण में किसी प्रकार की बाधा है ? (क) भारतीय अद्वैतवाद ( शून्यवाद, विज्ञानवाद, ब्रह्माद्वैतवाद, शिवात
वाद, विशिष्टाद्वैतवाद आदि)।
परिसंवाद-३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org