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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं
स्वीकारा है कि उन्हें ब्राह्मी स्थिति का पूर्ण साक्षात्कार नहीं हो पाया था । अहिंसा विनय की अन्तिम सीमा है । इसी परिप्रेक्ष्य में गांधी योगी हैं ।
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गांधी की ईश्वर में अटूट आस्था है । 'निर्बल के बलराम' में उनका दृढ़ विश्वास है । उन्होंने अपनी आत्मकथा के प्रथम अध्याय का अन्त, सूर के भजन - 'मो सम कौन कुटिल खल कामी' से किया है। इसी दृष्टि से वह भक्त हैं ।
इस प्रकार गांधी में विभिन्न भारतीय दार्शनिक विधाओं में चर्चित क्लिष्ट साधनाओं एवं भगवान् के प्रति अटूट आस्था का अद्भुत मणिकाञ्चन योग देखने को मिलता है । गांधी के सर्वोदय का मूल्यांकन बिना इस पृष्ठभूमि को समझे नहीं किया जा सकता । राजनीति जिसका अब तक के मानव इतिहास में कूटनीति से तादात्म्य था उसे धर्मनीति का एक नया आयाम गांधी ने दिया । सर्वोदय के प्रति गांधी की की अपनी एक दृष्टि है । अतः उन्हें समाज द्रष्टा कह सकते हैं ।
गांधी का सर्वोदय का समाजदर्शन कुछ उनकी अपनी हिन्दू आस्थाओं धार्मिक एवं नैतिक भावनाओं पर आधारित है । ये आस्थाएँ मूल रूप से दो प्रकार की हैं । प्रथम, साध्य रूप से ईश्वरास्था, ईश्वर जगत् का स्रष्टा, पालक एवं संहारक है । एक मात्र वही सत्य है, उसी का साक्षात्कार जीवन का परमशुभ है । गांधी अपने को सनातनी हिन्दू वैष्णव कहते हैं । द्वितीय, साधन रूप से एकादश आश्रमव्रत ।
ईश्वर का स्वरूप
गांधी अपनी आत्मकथा के प्रारम्भ में ही अपने प्राप्तव्य के बारे में इस प्रकार लिखते हैं :- "मेरा प्राप्तव्य आत्म-साक्षात्कार है, ईश्वर का आमने-सामने से दर्शनमोक्ष है ।" "
गांधी के अनुसार ईश्वर के अनन्त लक्षण हैं क्योंकि उसके रूप अनन्त हैं । 'वे मुझे क्षणभर के लिये आश्चर्यचकित कर देते हैं किन्तु मैं ईश्वर की सत्य के रूप में उपासना करता हूँ । यद्यपि वह मुझे मिला नहीं है, मैं खोज रहा हूं, खोज के लिये मैं जीवन की सर्वाधिक प्रिय वस्तु की भी बलि देने के लिए तैयार हूं, चाहे मुझे अपने जीवन की ही बलि क्यों न देनी पड़े। जब तक मुझे इस परम सत्य का साक्षात्कार
१. गांधी : ऐन आटोवायोग्रेफी पृ० ५ पर
परिसंवाद - ३
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