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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएँ से उत्पन्न है वह एक तरह की निर्वैयक्तिक नैसर्गिक-शक्ति, भारवाही बैल-शक्ति का द्योतक है जिसे भ्रमवश मनुष्य अपनी वैयक्तिक-शक्ति व स्वाधीनता का द्योतक मान बैठता है । बुद्ध-देशना का उद्देश्य मनुष्य की इस कर्मगति की यान्त्रिकता का निदर्शन कर उसके अपने यथार्थरूप के दर्शन की ओर प्रवृत्त करना है। इसीलिए बुद्ध मनुष्यों के प्रज्ञा-चक्षु कहे गये हैं । बुद्ध-देशना इस प्रज्ञा का प्रकाश है और इसके सहारे अन्य व्यक्तियों में भी प्रज्ञा जागृत करना उसी तरह है जैसे एक दीपक से अन्य दीपक को जलाना । इससे प्रकाश की सीमाएँ बढ़ती हैं और उसी अनुपात में अन्धकार की सीमाएँ सिमटती हैं और ये दोनों ही सीमाएँ व्यक्ति और समाज दोनों से होकर गुजरती हैं।
व्यक्ति का समाज से अनिवार्य सम्बन्ध है, यह उसके कर्म से निश्चित होता है। और इसीलिए यह केवल आकस्मिक तत्त्व नहीं है कि बुद्ध-देशना में व्यवहार को ही मानव-प्रामाणिकता के रूप में मान्यता मिली है। अर्थात् कर्म ही मानव-स्वरूप का निर्धारक है (उदान, ६-२)। और इसलिए स्वभावतः प्रज्ञा की एक अनिवार्य अभिव्यक्ति शील या आचार है । जैसा कि विशुद्धिमग में कहा है। शील या आचार ही धर्म का आरम्भ है । वैयक्तिक स्वतन्त्रता व बंधन-मुक्ति का पहला सोपान ही शील है, क्योंकि इसी आधार से मनुष्य बन्धनकारी पञ्च नीवरणों से मुक्ति पाता है अर्थात् इनसे-कामच्छन्द ( राग-तृष्णा ), व्यापाद ( हिंसा ) स्त्यान ( आलस्य-अकर्मण्यता ),
औद्धत्य-कौकृत्य ( अनवस्थितता, खेद ) और विचिकित्सा ( सन्देह ) से और फलतः वह शान्ति, अहिंसा, वितर्क, सुख और विपश्यना में प्रतिष्ठित होता है। उक्त नीवरण साँप की केंचुली की तरह हैं जो जब तक छोड़ नहीं दिये जाते, मानव स्वरूप से अभिन्न जान पड़ते हैं । यही अविद्या की स्थिति 'भवाङ्गो' का सतत आरम्भ है । बुद्धदेशना का दार्शनिक पक्ष इस नाम-रूपधारी सतत प्रवर्त्तमान कारण-शृंखला का सूक्ष्म विश्लेषण करता है, और उसका मानवतावादी पक्ष एक ऐसे मानव व्यष्टि और समष्टि का पक्षधर है जिसके अन्तर्गत उक्त वंधनकारी कारण-शृंखला जो मानव शोषण व उत्पीड़न के मूल में है, से छुटकारा पा सके । ४. बौद्ध दार्शनिक विश्लेषण
___ इस तरह बौद्ध-दार्शनिक विश्लेषण की पूर्वपीठिका, धम्मपद के शब्दों में है'हम जो कुछ हैं अपने विचारों के परिणाम के रूप में हैं', अर्थात् हम स्वयं प्रत्युत्पन्न हैं
और हमारा स्वरूप इस तरह नहीं कि हम अपने-आप को अपने कर्मों का कारण रूप चिरन्तन द्रव्य-रूप वाला आत्मा समझें। हमारी प्रत्येक स्थिति, प्रत्येक कार्य कर्म की एक पूर्व-शृंखला से उत्पन्न होकर पुनः पुनः एक कर्म-शृंखला को उत्पन्न करने में परिसंवाद-२
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