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व्यष्टि और समष्टि : बौद्ध दर्शन की दृष्टि में अपनी गवेषणा के अन्तर्गत इसी मानव दुश्चिन्ता से हमारा परिचय कराते हैं, किन्तु इसका ठीक निदान या ठीक दवा उनके पास उपलब्ध नहीं है। इसी सन्दर्भ में जैकक्सन बौद्ध-दार्शनिक विश्लेषण को अधिक मूलग्राही और प्रगतिशील मानते हैं, क्योंकि बौद्ध-दर्शन की आरम्भिक धारणा ही यह है कि सामाजिक या सांस्कृतिक स्वायत्तता के अन्तर्गत मानव व्यक्ति की स्वतन्त्रता की उपलब्धि असम्भव है। २. 'बुद्ध' का अर्थ
जैकक्सन के तुलनात्मक अध्ययन की कुछ प्राविधिक गलतियों की ओर ध्यान दिया जाना चाहिए । प्रथम यह कि, एक ही विषय-क्षेत्र (व्यष्टि-समष्टि) में होकर भी आधुनिक समाजशास्त्रियों और बौद्ध-दर्शन की विचार-पद्धतियाँ परस्पर बिल्कुल भिन्न हैं। समाजशास्त्रीय अध्ययन एक वैज्ञानिक अध्ययन होने से अन्तर्वैयक्तिक परीक्षणनिरीक्षण योग्य सामाजिक गतिशीलता और संरचना को ही मूल प्रदत्त विषय मान कर व्यक्ति को सदैव सामाजिकता के ही सन्दर्भ में नापता-तौलता और स्थिर करता है, और इसलिए वहाँ व्यक्ति का तद्-स्वरूप चिन्तन सम्भव नहीं। जैसा कि आधुनिक अस्तित्ववादी दार्शनिकों ने बताया है-वैज्ञानिक दृष्टि से समझे और स्थिर किये गये मनुष्य का निर्वैयक्तिकरण कभी रुक नहीं सकता, फिर चाहे एक क्रान्तिकारी दार्शनिक मार्क्स या एक सूक्ष्म मनस-विश्लेषक फ्रायड ही उसे रोकने का प्रयास क्यों न करें। दूसरी ओर बौद्ध-दर्शन एक धर्म-दर्शन होने के कारण 'मूलतः एक व्यक्ति-दृष्टि प्रधान विचारधारा है। अन्य धर्म-दर्शनों की तरह इसमें भी एक मानक व्यक्ति 'बुद्ध' की धारणा का धुरीय स्थान है जो प्रत्येक अन्य व्यक्ति के लिए उसके अपने लक्ष्य के रूप में एक शाश्वत प्रकाश बिन्दु की तरह स्थिर और अविचल है। इसीलिए यहाँ व्यक्ति को कभी एक सामाजिक ढाँचे के आधार से नहीं समझा जा सकेगा। अतः सर्वप्रथम हमें इन दो विचार पद्धतियों-वैज्ञानिक और मानवतावादी के चिन्तन सम्बन्धी उपर्युक्त मूल भेद को समझना चाहिए, जिससे कि हमें ध्यान रहे कि कहाँ समाजशास्त्रीय अध्ययन की सीमाएँ आरम्भ होती हैं, और कहाँ उनका अन्त हो जाता है और इसलिए कहाँ धर्म-दर्शन से उसकी कोई तुलना सम्भव नहीं है।
एक और बात जो जैकक्सन के अध्ययन-प्रणाली में हमें जोड़ लेनी चाहिए, वह है बौद्ध दर्शन के पूर्वगामी भारतीय दृष्टिकोण का वह अंश जो आश्चर्यजनक रूप से आधुनिक समाजशास्त्रीय अध्ययन से एक महत्वपूर्ण समानता रखता है, किन्तु केवल एक सीमा तक । बौद्ध-दर्शन के पूर्ववर्ती वैदिक दर्शन में मनुष्य के लिए समष्टि को जीवन का एक अपरिहार्य पक्ष माना गया है, यद्यपि इस तरह नहीं कि व्यष्टि
परिसंवाद-२
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