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व्यष्टि और समष्टि : बौद्ध दर्शन की दृष्टि में
डॉ० राजेन्द्र प्रसाद पाण्डेय आधुनिक समाजशास्त्रियों की दृष्टि में व्यष्टि-समष्टि की समस्या
___ अभी कुछ वर्षों पूर्व (सन् १९६६ में) प्रकाशित पुस्तक 'बुद्धिज्म : दि रिलिजन आफ एनालिसिस' के लेखक नोलन प्लिनि जैकक्सन ने काफी विस्तार से यह दिखाया है कि व्यष्टि-समष्टि को लेकर आधुनिक समाजशास्त्रियों का जो विश्लेषण है उससे कहीं अधिक मूलग्राही और सोद्देश्य विश्लेषण बुद्ध-दर्शन का उक्त सन्दर्भ में रहा है। आधुनिक समाजशास्त्रियों के विश्लेषण की मुख्य बातें इस प्रकार हैं।
(अ) मानव-व्यक्ति की स्वतन्त्रता व शक्ति की धारणाएँ वस्तुतः कतिपय सामाजिक प्रभावों की ही अतिसूक्ष्म अभिव्यक्तियाँ हैं। एरिक फ्रोम के शब्दों में 'आधुनिक मनुष्य स्वाधीन व्यक्ति नहीं, क्योंकि वह सामाजिक नियामकता से ही अधिकतर संचालित होता है। सामाजिक परिस्थितियाँ ही किन्हीं क्रिया-कलापों को मनुष्य के लिए अधिक पुरस्करणीय और इसलिए अधिक अनुकरणीय बनाती हैं।
(ब) अवश्य सभी व्यक्ति समान सामाजिक परिस्थितियों में संतुष्ट नहीं रहते, विशेषकर वे व्यक्ति जो परम्परा की अपेक्षा अन्तर्मन से चालित होते हैं और इसलिए समय-समय पर सामाजिक परिवर्तन घटित होते हैं। किन्तु इन परिवर्तनों से मनुष्य एक सामाजिक व्यवस्था से निकल कर किसी अन्य सामाजिक व्यवस्था में फँस जाता है, ठीक उस मछली की तरह जिसे एक जलाशय से निकल जाने पर किसी अन्य जलाशय का शरण, जीवन-धारण के लिए आवश्यक है।
(स) अतः व्यष्टि-समष्टि के सम्बन्धों को लेकर एक विचित्र-सी स्थिति पैदा होती है । सामान्यतः व्यक्ति सामाजिक परम्परा के उच्छेद का विरोधी होता है, यहाँ तक कि वे व्यक्ति भी जो किसी सामाजिक परम्परा का विरोध करते हैं उसके बदले अन्य सामाजिक व्यवस्था के पक्षधर होते हैं। समाज के प्रभाव से निर्मित व्यक्ति जैसा उसका पहरेदार है। किन्तु चूंकि प्रत्येक व्यक्ति यह भी जानता है कि वह और उसका समाज एक ही चीजें नहीं है, कहीं-न-कहीं उसके अन्तर्मन में सामाजिक नियमन-नियन्त्रण को लेकर दुश्चिन्ता भी बनी रहती है। वह जैसे सामाजिक प्रभावों से निकल अपने व्यक्ति-स्वरूप की अभिव्यक्ति चाहता है। इस जटिल मनःस्थिति को आधुनिक पाश्चात्य जगत् में भी स्थिति कहा गया है। आधुनिक समाजशास्त्री परिसंवाद-२
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