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व्यष्टि और समष्टि : बौद्धदर्शन के परिप्रेक्ष्य में
हम अपने से ही करते हैं । जो हमने समाज को नहीं दिया, जिन वैशिष्टयों का हमने समाज में आधान ही नहीं किया, उनको हम समाज से कैसे पा सकते हैं ? जब माध्यमिक हर दृष्टि को भाषीय प्रपञ्च कहता है तो उसका अभिप्राय यह है कि समाज से हम वही माँग सकते हैं जो हम समाज में देखते हैं । बौद्धों के अनुसार समष्टि का अपना कुछ नहीं है | वेदान्ती के अनुसार समष्टि में वह सब कुछ है जो व्यष्टि उसमें आधान करती है । पर वह इन आधान की गई बातों को अतिक्रान्त करके अवस्थित है । वेदान्त में एक आधार है जिसके चारों ओर समष्टि-व्यष्टि की बातें सँजो कर देखी जा सकती है और उस आधार को केन्द्रित करके व्यष्टि और समष्टि को भलीभाँति समझा जा सकता है । इसी कारण कम से कम व्यावहारिक स्तर पर आदान-प्रदान की न सिर्फ बात ही की जा सकती है बल्कि आदान-प्रदान भी हो सकता है । बौद्धदर्शन, विशेषतः माध्यमिक दर्शन के पास ऐसा कोई आधार नहीं है, उनकी करुणा भी निराधार है परन्तु एक बात जो उनके पास है और वेदान्त के पास नहीं है वह है दृष्टियों की भाषीयता । वेदान्त सभी दृष्टियों को अविद्या कह कर उनके खोखलेपन को उतनी स्पष्टता से नहीं दिखा पाता, जितनी स्पष्टता से प्रपञ्च को वाक् के साथ मिला कर माध्यमिक दिखलाता है । इस तरह अकेले बौद्ध दर्शन व्यष्टि- समष्टि को आधुनिक समस्या पर उतना विशद प्रकाश नहीं डाल सकता, जितना माध्यमिक-अद्वैत वेदान्त के सम्मिलित समन्वित दर्शन से पड़ सकता है ।
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परिसंवाद - २
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