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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएँ
प्रदान का सम्बन्ध माध्यमिक या अन्य किसी बौद्ध दर्शन के प्रस्थान में नहीं प्राप्त हो सकता। बोधिसत्त्व निस्पृह है, अतः उसकी करुणा अहेतुकी होती है । समष्टि से उसको कुछ नहीं पाना है । इतना ही नहीं, बोधिसत्त्व की दृष्टि में निरात्मवादी होने के कारण कोई दुःखित व्यष्टि है ही नहीं। उसकी करुणा व्यष्टि के लिए नहीं बल्कि दुःख के प्रति होती है। उसके सम्भार और उद्योग का आलम्बन दुःख है, दुःखित व्यष्टि नहीं । ऐसी अवस्था में न तो वह किसी को कुछ देता है और न स्वयं किसी से कुछ पाता है। आदान-प्रदान पर आधारित अधिकार और कर्तव्य की जो बात आधुनिक मतों और वादों की रीढ़ है, वह माध्यमिक बौद्धदर्शन में बिलकुल नहीं है। गांधीवाद की भी यही कमजोरी है क्योंकि वहाँ भी व्यष्टि का कर्तव्य सर्वोपरि है, उसका अधिकार अपने आदर्श रूप में तुच्छ है।
___ जो प्रश्न बौद्ध दर्शन में उठाए गए और उनका जो समाधान वहाँ दिया गया। वे सब आज के युग में तब तक निरर्थक हैं जब तक उनसे वर्तमान समस्याओं को युगापेक्षित ढंग से सुलझाने में सहायता नहीं मिलती। युग आदान-प्रदान और अधिकार-कर्तव्य की अपेक्षा करता है। माध्यमिक बौद्ध सम्प्रदाय में आदान-प्रदान के लिए कोई स्थान नहीं है। परन्तु बौद्धिक सन्तोष की दृष्टि से हम एक प्रयोग कर सकते हैं। हम यदि अद्वैत वेदान्त और माध्यमिक दर्शनों के सर्वदृष्टि-प्रहाणता के सिद्धान्त का समन्वय कर पाएँ तो शायद आधुनिक समस्याओं पर नई दृष्टि से विचार हो सकता है । वेदान्त और माध्यमिक किस प्रकार दृष्टि प्रहाण तक पहुँचते हैं इसका वर्णन ऊपर किया गया। हमने देखा कि माध्यमिक निषेधमुखेन सर्वशून्यता का प्रतिपादन करके चुप हो जाता है, पर वेदान्ती के लिए अपरोक्षानुभूति में सकल निरोध का पर्यवसान होता है । यदि व्यष्टि वास्तव में सकलग्राही ब्रह्म-स्थानीय समष्टि से अभिन्न मान ली जाए तो व्यष्टि का व्यष्टित्व अज्ञानमूलक होगा। परन्तु व्यष्टि साथ हो जितना अधिक समष्टि के निकट आएगी, उसी अनुपात में उसके स्वतन्त्र व्यष्टित्व का अज्ञानमूलक बोध क्षीण होता जाएगा। दूसरे शब्दों में व्यष्टि समष्टि से अपना मोक्ष, जो चरम पुरुषार्थ है, माँगतो है और इसे यह मोक्ष समष्टि में आत्मसात् होने पर मिल सकता है। व्यवहार अवस्था में भी समष्टि से विद्रोह करके नहीं, बल्कि समष्टि के निरन्तर सान्निध्य से ही व्यष्टि को उसका अधिकार मिल सकता है और सान्निध्य बनाए रखना उसका कर्तव्य हो जाता है । इस तरह व्यष्टि के अधिकार और कर्तव्य दोनों व्यष्टि के ही हाथ में हैं, वह जैसा कर्तव्य करेगा, तदनुरूप अधिकार उसे प्राप्त होगा । जो माँग समाज से करते हैं वह हर माँग वास्तव में वेदान्त की दृष्टि से,
परिसंवाद-२
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