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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएँ पुद्गल के अस्तित्व का निषेध किया गया है, तथापि इसका तात्पर्य निम्नलिखित दो प्रकार के पुद्गलों के निषेध में प्रतीत होता है-(१) बौद्धेतर दार्शनिकों द्वारा परिकल्पित नित्य, शाश्वत, कूटस्थ आत्मा के निषेध में तथा (२) चक्षु, रूप, वेदना आदि की भाँति परमार्थतः पुद्गल के अस्तित्व के निषेध में । विरवादी बौद्ध पञ्च स्कन्धों के समूह में प्रज्ञप्त व्यावहारिक पुद्गल के अस्तित्व का निषेध नहीं करते । इसीलिए आचार्य धर्मपाल स्थविर ने 'अनुटीका' में लिखा है
__ "पुग्गलो उपलब्भति सच्छिकट्टपरमत्थेन यो छविचाणविज्ञेय्यो ति संसरति मुच्चति चा ति एवं दिद्रिया परिकप्पित-पुग्गलो व पटिसेधितो, न वोहार-पुग्गलो ति" (अनुटीका, पृ० ३०८)।
__व्यक्तित्व का विश्लेषण करने पर जैसे रूप, वेदना आदि स्कन्ध परमार्थतः उपलब्ध होते हैं, वैसे पुद्गल नामक कोई वस्तु पृथक् उपलब्ध नहीं होती, फिर भी जैसे परमार्थतः विद्यमान न होने पर भी रथ के अवयवों में रथ' यह सांवृतिक व्यवहार होता है, वैसे ही पञ्चस्कन्धों में 'सत्त्व' इस प्रकार का सांवृतिक व्यवहार होता है।" जो धर्म संवृतिसत्य होते हैं, वे बन्ध्यापुत्र की भाँति सर्वथा अलीक नहीं होते, अपितु उनका व्यावहारिक अस्तित्व मान्य है। इसीलिए मूलटीकाकार भदन्त आनन्द स्थविर ने कहा है कि संवृतिज्ञान सत्य को ही आलम्बन बनाता है, असत्य को नहीं । इसीलिए अनुटीकाकार ने भी कहा है कि यदि पुद्गल के अस्तित्व का पारमार्थिक दृष्टि से निषेध किया जाता है, तो हमें इष्ट है। किन्तु यदि व्यावहारिक दृष्टि से निषेध किया जाता है, तब तो सत्त्व, रथ आदि शाब्दिक व्यवहार ही असम्भव हो जाएंगे।
स्थविरवादी पदार्थों का अनेक प्रकार से विभाजन करते हैं। उनमें से एक प्रकार यह भी है कि वे समस्त पदार्थों को नाम, रूप एवं प्रज्ञप्ति-इन तीन में विभक्त करते हैं। प्रज्ञप्ति शब्द का व्यवहार दो अर्थों में होता है-१. जो वस्तु किसी शब्द द्वारा कथित होती है, वह वस्तु प्रज्ञप्ति है, उसे अर्थप्रज्ञप्ति या प्रज्ञप्त्यर्थ कहते हैं । २. वह शब्द भी प्रज्ञप्ति है, जिसके द्वारा कोई वस्तु कही जाती है, उसे 'नामप्रज्ञप्ति' कहते हैं। पुद्गल को स्थविरवादी अर्थप्रज्ञप्ति कहते हैं। अर्थप्रज्ञप्ति वे धर्म होते हैं, जिनकी पृथक् और स्वतन्त्र सत्ता नहीं होती, फिर भी वे विद्यमान परमार्थ वस्तुओं के
१. यथा हि अङ्गसम्भारा, होति सद्दो रथो इति ।
एवं खन्धेसु सन्तेसु होति सत्तो ति सम्मुति ॥ सं० नि० १ : १३५ । २. सम्मुतिआणं सच्चारम्मणमेव नाआरम्मणं ति । मूलटीका, पृ० ३०७ । ३. यदि परमत्थतो अत्थितापटिसेधो, य इट्टमेतं । अथ वोहारतो, सत्तघटरथादीहि सत्तरथादि
वचनप्पयोगो येव न सम्भवेय्या ति ।-अनुटीका, पृ० ३१० । परिसवाद-२
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