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बौद्धदर्शन की दृष्टि से व्यक्ति एवं समाज
तत्त्व वस्तुतः 1: व्यक्तित्व में विद्यमान नहीं होता और यही उस मिथ्यादृष्टि का मिथ्यात्व है । बौद्धदर्शन के अनुसार यह गतिशील पुद्गल ही वस्तुतः अहं-बुद्धि का आश्रय, कर्ता, भोक्ता एवं बन्ध-मोक्ष का आधार होता है । क्योंकि इस प्रकार का पुद्गल बौद्ध दृष्टि में मान्य है, इसलिए वह उनकी नैरात्म्य दृष्टि का प्रतिषेध्य भी नहीं होता । बौद्धदर्शन स्थविरवाद, वैभाषिक, सौत्रान्तिक, योगाचार, माध्यमिक आदि प्रमुख दार्शनिक प्रस्थानों में विभक्त है । किन्तु इस प्रकार के व्यावहारिक पुद्गल के अस्तित्व के विषय में उनमें मतभेद नहीं हैं । अन्यथा कोई व्यवस्था बन नहीं सकेगी । ऐसे व्यावहारिक पुद्गलों के आपसी सम्बन्धों के आधार पर निर्मित समाज की भी व्यावहारिक सत्ता ही सिद्ध होती है । एक उद्देश्य, एक आदर्श, एक व्यवस्था एवं समान योगक्षेम के आधार पर सङ्गठित पुद्गल समूह में समाज या संस्था शब्द व्यवहृत होता है, किन्तु यह समाज अपने घटक पुद्गलों से न भिन्न सिद्ध होता है और न अभिन्न । फिर भी इसका एक व्यावहारिक अस्तित्व होता है । यह अपनी व्यवस्था एवं नियमों द्वारा व्यक्ति को प्रभावित करता है । उन्हें अच्छा या बुरा बनाता है, उन्हें अपने आदर्श की प्राप्ति में सुविधा या असुविधा प्रदान करता है, ठीक उसी प्रकार व्यक्ति भी समाज को प्रभावित करते हैं । अच्छे व्यक्तियों का समाज अच्छा एवं बुरे व्यक्तियों का समाज बुरा कहलाता है । कभी-कभी एक प्रभावशाली व्यक्ति भी समाज द्वारा निर्मित अनुपयोगी व्यवस्था में परिवर्तन लाकर उसे कल्याणकारी बनाता है और इसी में व्यक्ति की स्वतन्त्रता निहित है । व्यक्ति एवं समाज की पारस्परिक प्रभावशीलता को हम सेना, ग्राम या वन आदि के दृष्टान्त से भी समझ सकते हैं । यद्यपि सैनिक व्यक्तियों से भिन्न सेना का अस्तित्व नहीं होता, फिर भी सेना का एक इकाई के रूप में व्यवहार होता है । उसकी व्यवस्था सैनिक व्यक्ति को प्रभावित करती है । उसे आगे बढ़ने में मदद करती है और उसके योगक्षेम की व्यवस्था करती है । ठीक उसी तरह एक-एक सैनिक की बहादुरी, निर्भीकता आदि गुणों से सेना भी बहादुर, निर्भीक अथवा अपराजेय कहलाती है । इस तरह हम देखते हैं कि बौद्धदर्शन के अनुसार व्यक्ति एवं समाज अन्योन्याश्रित एवं परस्परापेक्ष सिद्ध होते हैं । इनका सम्बन्ध भी अन्योन्याश्रय या परस्परसापेक्षता सम्बन्ध कहला सकता है ।
स्थविरवादी दृष्टिकोण
पालि-अभिधर्मपिटक के कथावत्थु एवं मिलिन्दपञ्हो आदि ग्रन्थों में 'न हेत्थ पुग्गलो उपलब्भति' अर्थात् पुद्गल उपलब्ध नहीं होता इत्यादि वचनों द्वारा यद्यपि
परिसंवाद - २
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