________________
भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं भूमिका में वह सत्य प्रतीत नहीं होता, अपितु सत्य उससे भिन्न प्रतीत होता है। किन्तु जिस अवस्था में जो सत्य प्रतीत होता है, वह सत्य ही होता है, असत्य नहीं। संवृति सत्य के साथ सत्यशब्द के व्यवहार का यही स्वारस्य है। संवतिसत्य को व्यावहारिकसत्य, लौकिकसत्य या लोकसंवृतिसत्य भी कहते हैं। जब तक लोक है, संसार है, इस अवस्था के ज्ञान में जो सत्य प्रतिभासित होता है, वह संवृतिसत्य है। व्यक्ति और समाज दोनों संवृतिसत्य हैं। परमार्थसत्य में परम का तात्पर्य लोकोत्तर ज्ञान से है। इस अवस्था के ज्ञान में जो सत्य आभासित होता है, वह परमार्थसत्य है। अथवा 'परम' का अर्थ अविपरीत है। प्रमाणज्ञान में वस्तु का जैसा स्वरूप भासित होता है, वस्तु का ठीक वैसा ही स्थित होना अविपरीतार्थता है, यही परमार्थ है। व्यक्ति और समाज दोनों परमार्थसत्य नहीं है ।
नामरूपात्मक या जड-चेतनात्मक व्यक्तित्व के बौद्धदृष्टि से पाँच उपादान होते हैं। इन्हें ही पाँच उपादान-स्कन्ध भी कहते हैं। व्यक्तित्व के उपादानों में जो 'चेतन' या 'नाम' अंश है, बौद्ध उसका वेदना (सुख, दुःख आदि), संज्ञा, संस्कार एवं विज्ञान-इन चार भागों में विभाजन करते हैं तथा 'जड' अंश रूपस्कन्ध कहलाता है। ये पाँचों स्कन्ध अविपरीत अर्थ होने से 'परमार्थ' है। वस्तुवादी बौद्ध दार्शनिक इनकी पारमार्थिक सत्ता स्वीकार करते हैं। बौद्धदर्शन के अनुसार वस्तु वह है, जो कोई न कोई अर्थक्रिया अवश्य करती है। जो अर्थक्रियाकारी होता है, वह अवश्य क्षणिक होता है। फलतः बौद्धों के अनुसार प्रत्येक वस्तु क्षणिक होती है। ये पाँचों स्कन्ध भी क्षणिक हैं। ये स्कन्ध क्षण-क्षण उत्पन्न एवं विनष्ट होते हुए धाराप्रवाह या सन्तति के रूप में निरन्तर प्रवृत्त होते रहते हैं। यद्यपि यह सन्तति स्कन्धों की है, किन्तु सन्तति स्वयं स्कन्ध नहीं है, स्कन्ध तो मात्र क्षणिक ही है। व्यक्तित्व के भीतर विद्यमान ये पाँचों स्कन्ध एक-दूसरे से सर्वथा पृथक् अवस्थित होते हैं। फिर भी व्यक्ति के ज्ञान में इनका सामूहिक ग्रहण होता है अर्थात् पाँचों स्कन्धों की समूहसन्तति हमारे ज्ञान का विषय होती है। यह समूह-सन्तति पाँच स्कन्धों से न सर्वथा भिन्न है, क्योंकि यह स्कन्धों से सम्बद्ध है और न सर्वथा अभिन्न है, क्योंकि एकत्व रूप में गृहीत होती है, जबकि स्कन्ध पाँच हैं, तथा न तो इसकी स्कन्धों की भाँति पारमार्थिक सत्ता ही है। फिर भी यह ज्ञान का विषय होती है। इसी समूह-सन्तति में पुद्गल या व्यक्तित्व प्रज्ञप्त या व्यवहृत होता है। इस समूह के अधिष्टान पाचों स्कन्ध क्षणिक, परिवर्तनशील एवं गतिशील हैं, इसलिए इन स्कन्धों का समूह या उसमें प्रज्ञप्त पुद्गल भी क्षणिक परिवर्तनशील एवं गतिशील हो होता है, किन्तु मनुष्य की मिथ्यादृष्टि उसे एक, स्थिर, नित्य एवं कूटस्थ के रूप में ग्रहण करती है, जबकि ऐसा कोई परिसंवाद-२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org