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बौद्धदर्शन की दृष्टि से व्यक्ति एवं समाज वश से प्रज्ञप्त होते हैं, जैसे-समूह, सन्तति आदि । स्थविरवादी दर्शन में बाह्य जड पदार्थों का अन्तिम अवयव आठ परमाणुओं का एक सङ्घात होता है। इससे छोटा कोई अवयव नहीं होता। इसका विभाजन सम्भव नहीं है। वे इसे 'अष्टकलाप' कहते हैं। यह परमार्थ धर्म है। इन्हीं अष्टकलापों के विशेष आकार-प्रकार के सन्निवेश घट, पट, रथ, गृह आदि कहलाते हैं। यद्यपि इन घट, पट, रथ आदि की अष्टकलापों से पृथक् स्वतन्त्र सत्ता नहीं होती, फिर भी ये उन परमार्थधर्मों की छाया के आकार में ज्ञान-विज्ञान में प्रतिभासित होते हैं। ये ही प्रज्ञप्त्यर्थ हैं। इस अर्थप्रज्ञप्ति का स्थविरवादी ६ भागों में विभाजन करते हैं, उनमें से एक अविद्यमान प्रज्ञप्ति है। अविद्यमान प्रज्ञप्ति वे पदार्थ हैं, जिनके उपादान तो परमार्थतः विद्यमान होते हैं, किन्तु वे स्वयं विद्यमान नहीं होते । जैसे-रथ, घट आदि, इसे उपादायप्रज्ञप्ति भी कहते हैं। सत्त्व भी ऐसा ही उपादायप्रज्ञप्ति नामक एक पदार्थ है। यह परमार्थतः विद्यमान पाँच स्कन्धों में प्रज्ञप्त है । यद्यपि यह पृथक् स्वतन्त्र रूप से विद्यमान नहीं है, फिर भी अत्यन्त मृषा नहीं है । इसे पञ्चस्कन्धों से जैसे भिन्न या अभिन्न नहीं कहा जा सकता, वैसे ही यह “सर्वथा है या सर्वथा नहीं है" यह भी नहीं कहा जा सकता। सर्वथा अविद्यमान धर्म किसी कार्य के हेतु-प्रत्यय नहीं होते । किन्तु पुद्गल ऐसा नितान्त असत् धर्म नहीं है। अपितु कोई पुद्गल कल्याणमित्र होता है और कोई पापमित्र । इसका आश्रय करके किसी में कुशल (पुण्य) धर्मों की तथा किसी में अकुशल धर्मों की उत्पत्ति होती है। इस तरह पुद्गल उपनिश्रय-प्रत्यय होता है। इससे स्थविरवादी दृष्टिकोण से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि पुद्गल की सांवृतिकसत्ता इस मत में स्वीकृत है। व्यवहार में उसकी अर्थक्रिया भी उपलब्ध है। ठीक यही स्थिति समाज की भी है। वैभाषिक, सौत्रान्तिक एवं योगाचारदृष्टिकोण
वस्तुओं के विविध प्रकार के विभाजनों में इन मतों के अनुसार एक विभाजन का प्रकार यह भी है कि समस्त वस्तुओं को ये द्रव्यसत् और प्रज्ञप्तिसत् में विभक्त १. तेहि रूपचक्खादीहि अओ सत्तरथादिसावलम्बितो वचनत्थो विज्जमानो न होति,
तस्मा सत्तरथादि-अभिलापा 'अविज्जमानपत्ती ' ति वुच्चन्ति, न च ते 'मुसा' ति
वुच्चन्ति, लोकसमावसेन पवत्तत्ता । —मूलटीका, पृ० ३०७ । २. उपादाय पञ्चत्ति हि उपादानतो यथा अआ अनआ ति च न वत्तव्बा, एवं सब्बथा अत्थि
नत्थीति न वत्तब्धा ।—अनुटीका, पृ० ३१० ।। ३. तथा यं खन्धसमूहसन्तानं एकत्तेन गहितं उपादाय 'कल्याणमित्तो पापमित्तो पुग्गलो' ति गहणं पति च पवत्तति, तं तदुपादानभूतं पुग्गलसआय सेवमानस्स कुसलाकुसलानं उप्पत्ति होती ति 'पुग्गलो पि उपनिस्सयपच्चयेन पच्चयो' ति वुत्तं ।—मूलटीका, पृ० ३०७-३०८ ।
परिसंवाद-२
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