________________
१०
भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं मार्ग है। यह मार्ग स्वयम्भूत नहीं है, अपितु श्रेष्ठ व्यक्तित्व की ही प्रसूति है। आत्मास्तित्व को केन्द्र मानकर जिन मिथ्यादृष्टियों के कारण अकुशल प्रवृत्तियाँ व्यक्ति में आश्रय ग्रहण करती हैं, प्रतिष्ठा-लाभ कर वृद्धिंगत होती हैं, उनमें से एक-एक के प्रतिपक्ष में मार्गसत्य द्वारा विशेष-विशेष प्रज्ञाएँ उदित होती हैं। उसके फलस्वरूप व्यक्ति पर जो अब तक के अकुशल प्रवृत्तियों का आधिपत्य जमा है। वे विष्कम्भित होते जाते हैं और उनके विपरीत श्रद्धा, वीर्य (उत्साह), स्मृति, समाधि, मैत्री, करुणा, मुदिता, प्रज्ञा आदि का व्यापक आधिपत्य स्थापित होता है। इस प्रक्रिया से आर्यत्व या श्रेष्ठता के कुशल धर्मों का आवाहन होता है । सत्यदर्शन और सत्य-भावना के बल से व्यक्तित्व का जो भी हीन एवं अकुशल पक्ष का आधार है, आश्रय है, उसकी परावृत्ति हो जाती है, उसका अन्यथाभाव हो जाता है । इस प्रक्रिया को 'आश्रयपरावृत्ति' कहा जाता है। मनुष्य के अन्दर का जो क्लेश एक बार मार्ग के बल से प्रहीण हो चुका है, उसकी अग्निदग्ध बीज की भाँति पुनः उत्पत्ति नहीं हो सकती। इसी क्रम से आर्यत्व को प्रतिष्ठा मिलती है। यह आर्यत्व सम्यक्त्व से .नियत है। ऐसा व्यक्तित्व आदर्शोन्मुख प्रवृत्तियों के प्रवाह में चल चुका है, जो उत्तरोत्तर सम्यक् होगा। यह जीवन का निर्मल एवं आदर्श पक्ष है, जो अपने आचरण एवं सम्बन्धों से राग, द्वेष और मोह के प्रभाव को समाप्त करने लगता है। इसके फलस्वरूप उसकी आत्मदष्टि (पूर्व अस्तित्वावधारणा) समूल विगलित होने लगती है। उस अवस्था में इस बात की पूरी सम्भावना खड़ी हो जाती है कि इस आश्रय-परावृत्ति की प्रक्रिया में विशुद्ध नैरात्म्य का अनुभव हो और उसके आधार पर लोक में नयी और निष्कलुष मान्यताओं एवं सम्बन्धों को स्थापित किया जा सके। व्यापक सर्जनशीलता
क्लेशरहित और निष्कलुष व्यक्तित्व ही पर्याप्त नहीं है, क्योंकि बुद्ध, धर्म और सङ्घ की शरण ग्रहण करने का विशेष प्रयोजन है-क्लेशों से केवल अपना त्राण नहीं, अपितु जगत् का भी त्राण । बुद्ध की शरण बुद्धकारक गुणों की शरण है। बुद्धकारक गुणों का समूह बुद्ध का धर्मकाय है, किसी व्यक्ति-विशेष का रूपकाय नहीं। सङ्ग की शरण उन सङ्घकर धर्मों को स्वीकार करना है, जिन्हें आठ भागों में सङ्घीभूत कर उसे श्रेष्ठ धर्मों से समग्र एवं सम्पूरित किया जाए। इसी प्रकार धर्म की शरण जाने का अर्थ है, निर्वाण की शरण जाना। निर्वाण का अर्थ है स्वसन्तान (व्यक्ति) और परसन्तान (दूसरे सभी) के क्लेशों और दुःखों का विगमन । इस महान कार्य के लिए विकसित एवं प्रबुद्ध व्यक्तित्व चाहिए, जिसकी प्रज्ञा अमल हो और सर्वग्राही हो तथा उसकी मैत्री एवं करुणा भी अपरिमित, असंसक्त एवं अविरत रूप में सर्जनशील हो। परिसंवाद-२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org