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बौद्धदृष्टि में व्यक्ति, लोक तथा सम्बन्ध यह करुणा सभी सीमाओं और निमित्तों को तोड़कर व्यापक रूप से प्रवाहित एवं क्रियाशील होने लगती है। उसकी दृष्टि में व्यक्तिगत निर्वाण का भी कोई मूल्य नहीं रह जाता। फलतः उसका जीवन परार्थ हो जाता है। ऐसा व्यक्तित्व स्वतन्त्र व्यक्तित्व है, किन्तु करुणावश इसने पराधीनता स्वीकार की है।
___ बौद्ध जीवन-परम्परा में व्यक्ति-स्वातन्त्र्य के रूप भी मिलते हैं। श्रावकयान और प्रत्येकबुद्धयान की साधना का आदर्श अर्हत्त्व है, जिसका अन्तिम लक्ष्य व्यक्ति को क्लेशों से मुक्त करना है। इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि ये लोग सामाजिक उत्तरदायित्व को स्वीकार नहीं करते, अपितु इतना सही है कि ये लोग लोकोपकार के पुण्यों का भी विनियोजन व्यक्ति की क्लेशनिवृत्ति के लिए करते हैं। स्पष्ट है कि अत्यधिक रागप्रहाण पर जोर देने का एक स्वाभाविक परिणाम होता है अत्यन्त वैराग्य। प्रत्येकबुद्ध एक ऐसा व्यक्ति है, जिसका आदर्श है, दुनियाँ में अकेला रह कर गैंडे के समान आचरण करना। उनका कहना है कि दूसरों के संसर्ग से स्नेह उत्पन्न होता है। स्नेह दुःख का कारण बनता है, इसलिए स्नेह के दुष्परिणामों से बचना चाहिए। जब मिथ्यादृष्टियों को पार कर लिया और वास्तविकता का ज्ञान हो गया तो किसी भी दूसरे की सहायता की आवश्यकता नहीं रह गयी । मैत्री, करुणा आदि के अभ्यास से संसार में किसी के साथ जब वैर-विरोध नहीं रह गया, तो अकेले विचरण करना ही उत्तम है। इस प्रकार प्रत्येकबद्ध अपने लिए संघ की भी अपेक्षा नहीं करता, उसे अपने स्वतंत्र पराक्रम पर विश्वास है। दूसरों के प्रति वह हितानुकम्पी है, किन्तु अपने लिए दूसरों से कुछ नहीं चाहता। इस विशेष प्रकार का जीवन-दर्शन बौद्ध निकायों में विरल है, इसलिए वह मुख्य धारा में नहीं आ सका। प्रत्येकबुद्ध की करुणा और प्रज्ञा का आयाम विस्तृत नहीं था। अन्य बौद्ध धाराओं में दृष्टि के परिवर्तन के साथ-साथ करुणा का क्षेत्र विस्तृत होता गया। इस प्रकार की करुणा लोक में प्रचलित दया या कृपा के समान नहीं है । इसके पीछे दूसरों को दुःखों से दूर करने के लिए विराट् संकल्प एवं योजना है। संघ के समक्ष व्यक्ति ने आचार्य से सभी सत्त्वों के लिए, कुछ के लिए नहीं; सभी समय, कुछ समय के लिए नहीं; चित्त में भी कोई बुराई न लाने का संकल्प एवं संवर-समादान किया है। उस स्थिति में व्यक्ति ने दुःखों से जगत् के परित्राण के लिए प्रबल प्रतिज्ञा ली है और तदनुसार उस मार्ग पर प्रस्थान कर दिया है। देवों, देवाधिदेवों का आराधन नहीं, प्रत्युत उसने अपने जीवन का उद्देश्य सत्त्वाराधन (मानव की उपासना) बनाया है। बुद्ध का अनुयायी होने के कारण उसके लिए यह अस्वाभाविक न होता कि वह आज तक के बुद्धों के प्रति अपने को समर्पित करता, उन्हें ही अपने आराधन का आलम्बन
परिसंवाद-२
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