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दृष्टि में व्यक्ति, लोक तथा सम्बन्ध
विकार उत्पन्न करता है । इस प्रकार की प्रवृत्तियों से पुष्ट और अभिष्यन्दित होकर कर्म-परिणाम के रूप में वह तदनुकूल व्यक्तित्व का निर्माण करता है ।
व्यक्तित्व निर्माण
व्यक्ति के जीवनास्तित्व के
।
ऊपर कहा गया है कि व्यापारों के
इस पूरे चरित्र की पृष्ठभूमि में अज्ञान और उसके विभिन्न प्रकार, रुचियों के भेद तथा ग्रहणसामर्थ्य की हीनता या उच्चता निर्धारित होते हैं, जिनके आधार पर व्यक्तित्व का स्तर निश्चित होता है। विश्लेषण से उपर्युक्त स्थिति स्पष्ट हो जाती है व्यक्ति के उपादानों में जड और अपने में सम्प्रयुक्त विभिन्न प्रकार के साथ चित्त और चैतसिक प्रमुख हैं। मनुष्यों में एक प्रकार के लोग चित्त एवं चैतसिकों को पहले पिण्ड के रूप में ग्रहण करते हैं और उसे ही स्वात्मा या स्व स्वीकार करते हैं । दूसरे प्रकार के लोग रूपपिण्ड को आत्मा स्वीकार करते हैं । तीसरे प्रकार के चित्त और रूप ( जड) दोनों को ही पिण्डतः एवं आत्मतः स्वीकार करते हैं । उक्त आधार पर व्यक्ति के अस्तित्व (आत्मा की कल्पना ) के सम्बन्ध में मुख्यरूप से पाँच दृष्टिकोण बनते हैं । १ - आत्मा आत्मीय दृष्टि (मैं और मेरा विस्तार), २ – ध्रुव एवं उच्छेद दृष्टि (सभी कालों में अस्तित्व या वर्तमान के बाद कुछ नहीं), ३ – नास्ति दृष्टि ( कर्म, कर्म - फल के दायित्व का अस्वीकार ), ४ - हीन एवं उच्चदृष्टि एवं ५ - शीलव्रतपरामर्शदृष्टि (विविध प्रकार के अन्धविश्वास ) | ये सभी दृष्टियाँ मिथ्यादृष्टियाँ हैं; क्योंकि वास्तविकता के विपरीत हैं । वास्तव में ये सब तृष्णा से जनित हैं । इन सब में मूलभूत तृष्णा आत्मास्तित्व की तृष्णा ही है । आत्मतृष्णा दो रूपों में खड़ी होती है१ - नित्यता के रूप में और २ - विस्तार के रूप में । यदि आत्मा स्वरूपतः नित्य है। और उसका अस्तित्व तीनों कालों में विस्तृत एवं व्यापक है तो उसके स्वरूप और अवधारणा की मात्रा के आधार पर व्यक्ति शेष जगत् से अपना तृष्णाजीवी सम्बन्ध स्थापित करेगा । अस्तित्व की इसी अवधारणा से सर्वत्र 'स्व' और 'पर' दृष्टि खड़ी होती है और उन दो सङ्केतों के बीच ही सारे धार्मिक सामाजिक सम्बन्ध जोड़े जाते हैं ।
व्यक्तित्व निर्माण की उक्त प्रक्रिया में श्रेष्ठ व्यक्तित्व के विकास की भी पूरी सम्भावना निहित है, क्योंकि कार्यकारण की जिस व्यवस्था में अकुशल व्यक्तित्व बनता है, उसी के अन्तर्गत कुशल व्यक्तित्व के विकास का भी मार्ग है । कुशल और अकुशल दोनों ही प्रतीत्यसमुत्पन्न ( कारण-समूहों से उत्पन्न ) हैं । चार आर्यसत्यों में से मार्गसत्य कुशल व्यक्तित्व के लिए द्वार खोलता है । यह सत्य के यथाभूत दर्शन का
परिसंवाद - २
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