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समता के आयाम
३११ राजनीतिक समता का अर्थ कानून और वोट के मामले में बराबरी है। इस तरह चाहें प्रतीक रूप में ही मनुष्य राज्य के लेखे बराबर हैं । व्यवहार में यह समता सामाजिक दर्जे, आर्थिक शक्ति के अभाव में खारिज़ हो सकती है। जैसे भारी चुनाव के खर्च के कारण हर कोई विधायक या संसद सदस्य नहीं बन सकता और फलतः राज-काज में समान रूप से भागीदार नहीं बन सकता। लेकिन यह माना जाता है कि अन्तिम रूप से तो वोट ही इसका निर्णय करता है। उसमें समान आयु के स्त्री, पुरुष अगर समान रूप से भाग ले सकते हैं तो वे प्रतिनिधि के जरिए शासन में शरीक हैं।
आध्यात्मिक समता आन्तरिक है। प्राण-अपान, ठंढ-गरम, सुख-दुःख वगैरह के द्वन्द्वों में एक जैसा होना है । ऐसा नहीं कि भेद का अनुभव नहीं होता किन्तु उससे चित्त में क्षोभ नहीं होता। समदर्शी, यथाभूत, यथावत, तद्वत, जस का तस देखता है और विचलित नहीं होता।
आन्तरिक और बाह्य समता का एक दूसरे पर प्रभाव पड़ता है। जैसे अगर समाज में सम्पत्ति की संस्था है तो मनमें उसके प्रति लोभ होना ज्यादा सम्भव है। किसी की कोई व्यक्तिगत सम्पत्ति हो ही न तो यह लोभ छीझ सकता है। लेकिन अगर समाज से व्यक्तिगत सम्पत्ति का नाश कर दिया जाए, और चित्त में उसके प्रति आसक्ति बनी रहे तो वह अवसर पा कर किसी-न-किसी रूप में सुविधा, सेवा अधिकार वगैरह में प्रगट होती है।
प्राचीन भारतीय दर्शन और साधना में आन्तरिक, आध्यात्मिक समता पर ज्यादा बल रहा है। समता के आधुनिक दर्शन और साधन में सामाजिक और बाह्य समता पर ज्यादा बल दिखायी पड़ता है। क्या कोई ऐसा दर्शन और साधनक्रम हो सकता है जिसमें इन दोनों एकाङ्गी बल-अबल को समतुल्य बनाया जा सके ?
२. समता की कल्पना प्राचीन है। किन्तु यह जैसे प्राग् ऐतिहासिक वस्तु रही है। बहुत करके अतीत या अनागत में पूर्ण समता, स्वतन्त्रता, सुख आदि की कल्पना की गयी है। या तो ऐसा रामराज्य में था जो अब है नहीं। या स्वर्ग के राज्य में था जहाँ से आदम और हौवा पतित हुए। संसार में तो जैसे विषमता का राज्य है। आना-जाना, सुख-दुख, मान-अपमान, ठंढ-गरम वगैरह है। या फिर अनागत काल में है जब समाजवाद या साम्यवाद अपने पूर्ण रूप में प्रगट होगा तो फिर व्यक्तियों पर नहीं, वस्तुओं पर शासन होगा, राज्य मुरझा जाएगा, हर किसी से उसकी योग्यता के मुताबिक काम लिया जाएगा, हर किसी को उसकी आवश्यकता
परिसंवाद-२
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