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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं के मुताबिक मिलेगा, शोषण-पीड़न न होगा, सुखी समाज होगा, वगैरह । लेकिन वह समाज कल्प में है, चाहे वह कल्प पुराकाल में हो, या भविष्य में।
समता की आजकल की चिन्ता अतीत-अनागत में नहीं, वर्तमान में ही इसे प्राप्त करने की है। परलोक में नहीं, स्वर्ग के राज्य में या साम्यवाद के चरम में नहीं, यहीं, इसी लोक में, इसी क्षण समता प्रगट हो। समता दृष्ट धर्म है, अदृष्ट नहीं। अनुभवगम्य है, परीक्षण योग्य ।
३. समता सिर्फ़ मनुष्यता के सामान्य गुण के रूप में नहीं, बल्कि व्यवहार में जरूरी है। समता के गुण का बखान काफी नहीं, आचरण जरूरी है। यह कैसे हो?
यह 'समान को समान' के जरिए हो सकता है। यह 'असमान को असमान' के द्वारा भी समता का व्यवहार किया जा सकता है। यह दोनों ही रास्ता असमता के लिए भी प्रयोग में लाया जा सकता है, समता के लिए भी। उदाहरण के लिए वर्ण व्यवस्था में भी 'समान को समान' और असमान को असमान' की व्यवस्था थी। किन्तु वह व्यवस्था ही ऊँच-नीच, दूरी, और शुद्ध-अशुद्ध पर टिकी हुई थी। समता की दृष्टि में 'समान के लिए समान' या 'असमान के लिए असमान' का प्रस्थान, प्रयोजन, मार्ग-फल भिन्न है।
उन्नीसवीं सदी में समता के व्यवहार के लिए 'अवसर की समता' पर बहुत बल दिया गया। किसी को कोई भी काम-धन्धा, ओहदा, सम्मान वगैरह पाने में उसकी योग्यता के अलावा कोई बाधा न हो, समान अवसर हो, यह समता के व्यवहार की आधारशिला मानी गयी। किन्तु यह 'अवसर की समता' असमता का कारण बन सकती है। क्योंकि मनुष्य एक जैसी स्थिति में नही हैं। स्थिति की विषमता के कारण अगर अवसर की समता मिल भी जाए तो जो ज्यादा अच्छी स्थिति में पैदा हुए हैं, बलवान हैं, बुद्धिमान हैं, वे उनसे कहीं आगे निकल जायेंगे जो खराब स्थिति में पैदा हुए हैं, बलहीन हैं, बुद्धिहीन हैं। अगले समान अवसर की समता को ही पर्याप्त मानते हैं। जबकि पिछड़ों के लिए विशेष अवसर बिना समान स्थिति में आना सम्मव नहीं। ध्यान रहे, अवसर की समता लक्ष्य नहीं साधन है। साध्य है समता।.
४. समता परम आदर्श है, किन्तु विषमता तथ्य है। 'स्वतन्त्रता' समता, 'भाईचारा' की गूंज अट्ठारहवीं सदी की फ्रांस की राज्य क्रांति के बाद सारी दुनिया में हुई है। यह भी दुहराया जाता है कि 'सभी मनुष्य समान जनमते हैं।' किन्तु यह परिसंवाद-२
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