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जैनवाङ् मय में समता के स्तर
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कि मनुष्य अपने कर्म से ब्राह्मण होता है, अपने कर्म से क्षत्रिय होता है, अपने कर्म से वैश्य होता है और अपने कर्म से शूद्र होता है
कम्मुणा वम्भणो होइ कम्मुण होइ खत्तिओ । वइस्सो कम्मुणा होइ सुछो हवइ कम्मुणा ॥
मानवों के उच्च-नीच व्यवहार का हेतु उनका आचरण होता है, न कि जाति या वर्ण, जैसा कि नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने अपनी कृति - 'गोम्मटसारकर्मकाण्ड' में बतलाया है
संता कमेणागयजीवायरणस्स गोदमिदिसण्णा ।
उच्चं णीचं चरणं उच्चं णीचं हवे गोदं ॥ १३ ॥
भगवान् महावीर की देशना जातिगत या वर्णगत भेदभाव के बिना मानवमात्र के लिए थी । उपासकदशाङ्ग - सूत्र के सप्तम अध्ययन में भगवान् महावीर के परमभक्त उपासक सद्दालपुत्र नामक कुम्भकार का विस्तृत वर्णन है, जो आजीविक सम्प्रदाय को छोड़कर महावीर के सम्प्रदाय में प्रविष्ट हुआ था ।
जैन आगमों तथा उनके उत्तरवर्ती ग्रन्थों में इस प्रकार के अनेकानेक उल्लेख पाये जाते हैं ।
यदि भगवान् महावीर मानव की सामाजिक समता के समर्थक न होते तो चारों वर्णों के लोग उनके सम्प्रदाय का आश्रय कैसे लेते हैं ? आज भी दक्षिणभारत में वैश्यों के अतिरिक्त बहुत से क्षत्रिय तथा ब्राह्मण भी जैनधर्म के अनुयायी हैं । सम्प्रति श्वेताम्बर जैन मुनियों में कई मुनि ऐसे भी हैं जो पहले हरिजन रहे हैं ।
आचार्यकल्प आशाधर ने अपने ग्रन्थ 'सागारधर्मामृतम् ' (२.२२) में लिखा है कि शूद्र भी उपकरण, आचार और शरीर की शुद्धि से जैनधर्म का अधिकारी है । इस समय भले ही वह जाति से हीन हो, पर काललब्धि के प्राप्त होने पर उसका आत्मा धर्म का धारक हो जाता है ।
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शूद्रोऽप्युपस्कराचारवपुः शुद्धचास्तु तादृशः ।
जात्या हीनोऽपि कालादिलब्धौ ह्यात्मास्ति धर्मभाक् ॥
आचार्य समन्तभद्र कृत 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार:' में लिखा है-धर्म के प्रभाव से कुत्ता भी देव हो जाता है और अधर्म के प्रभाव से देव भी कुत्ता हो जाता है । धर्म के प्रभाव से प्राणियों को कोई अनिर्वचनीय सम्पदा की प्राप्ति होती है ।
परिसंवाद - २
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