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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएँ
पुराणों को दृष्टि से
जटासिंहनन्दी 'वराङ्गचरितम्' (११.१९५) में लिखते हैं-सभी मानव समान हैं । ट्रेडमार्क की भाँति ऐसे कोई रंग नहीं हैं जिनसे ब्राह्मण आदि वर्ण पहचाने जा सकें। ब्राह्मण चन्द्रकिरणों की भाँति धवल नहीं होते, क्षत्रिय पलाशपुष्प जैसे रंग के नहीं होते, वैश्य हरिताल की भाँति पोले नहीं होते और न शूद्र ही कोयले सरीखे काले ही होते हैं
न ब्राह्मणाश्चन्द्रमरीचिशुभ्रा न क्षत्रियाः किंशुकपुष्पगौराः।
न चेह वैश्या हरितालतुल्याः शूद्रा न चाङ्गारसमानवर्णाः॥
रविषेणाचार्य ने 'पद्मपुराणम्' (११.२०३) में लिखा है-कोई भी जाति गहित नहीं होती। गुण कल्याण के हेतु होते हैं। भगवान् ने व्रत पालन में निरत चाण्डाल को भी ब्राह्मण बतलाया है
न जातिहिता काचिद् गुणाः कल्याणकारणम् ।
व्रतस्थमपि चाण्डालं तं देवा ब्राह्मणं विदुः ॥ भगवज्जिनसेनाचार्य 'आदिपुराणम' (पर्व ३८) में लिखते हैं-जाति नामक नाम-कर्म के उदय से उत्पन्न मनुष्यजाति एक ही है, पर जीविका के भेद से वह चार भागों (वर्गों में) विभक्त हो गयी है
मनुष्यजातिरेकैव नामकर्मोदयोद्भवा।
वृत्तिभेदाहिता दाच्चातुर्विध्यमिहाश्नुते ॥ वस्तुतः वही जाति बड़ी मानी जा सकती है, जिसमें संयम, नियम, शील, तप, दान, दम (इन्द्रियदमन) और दया वास्तविक अस्तित्व रखते हों
संयमो नियमः शीलं तपो दानं दमो दया।
विद्यन्ते तात्त्विका यस्यां सा जातिमहती मता॥ जैनदर्शन में सामाजिक समता
___ जैनदर्शन का मूलस्रोत 'तत्त्वार्थसूत्रम्' है, जिसके मङ्गलाचरण तथा 'प्रमाणनयैरधिगमः' (१.६) इत्यादि सूत्रों के आधार पर अनेक बड़े-बड़े दार्शनिक ग्रन्थ रचे गये हैं और सर्वार्थसिद्धतत्त्वार्थाधिगमभाष्य, तत्त्वार्थवातिक, तत्त्वार्थश्लोकवातिक आदि बड़े-बड़े ग्रन्थों में तत्त्वार्थसूत्र के सभी सूत्रों की व्याख्या की गयी है। ये सभी परिसंवाद-२
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