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जैनवाङ्मय में समता के स्वर
श्री अमृतलाल जैन
प्राचीन जैनवाङ्मय की दृष्टि से किसी समय यहाँ भोगभूमि रही । भोगभूमि में उत्पन्न हुए मनुष्य 'आर्य' कहलाते थे । उन्हें अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कोई व्यापार नहीं करना पड़ता था; क्योंकि उनकी सभी आवश्यकताएँ इस प्रकार के कल्पवृक्षों से ही पूरी हो जाती थीं । फलतः आर्यों में सञ्चय करने की मनोवृत्ति नहीं थी । इसी कारण से वे कोई पाप नहीं करते थे; आजीवन स्वस्थ एवं सुखी रहते थे, और मरणोपरान्त स्वर्ग ही जाते थे । उस समय के मानवों में पूर्ण समानता थी | सञ्चयवृत्ति के न होने से आर्थिक समता रही और वर्णव्यवस्था तथा जातिप्रथा के न होने से सामाजिक समता ।
समय के परिवर्तन के साथ व्यवस्था भी परिवर्तित हो गयी । भोगभूमि का स्थान कर्मभूमि ने ले लिया और जीविका चलाने के लिये मानव समाज को असि षि, कृषि, सेवा, वाणिज्य और शिल्प का आश्रय लेना पड़ा। ऐसी स्थिति में सञ्चयवृत्ति का प्रारम्भ हुआ और उसी के साथ आर्थिक विषमता का जन्म हुआ ।
नौवीं शती के जैन आचार्य भगवज्जिनसेन ने अपने महापुराण में लिखा है कि इस युग के प्रारम्भ में प्रथम तीर्थङ्कर भगवान् ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र सम्राट् भरत ने, जिनके नाम पर इस देश का नाम 'भारत' रखा गया, वर्ण व्यवस्था को जन्म दिया । नवीं शती के बाद के अनेक जैन मनीषियों ने भगवज्जिनसेनाचार्य के अनुकरण पर वर्णव्यवस्था तथा जातिप्रथा को प्रश्रय दिया । दसवीं शताब्दी के समर्थ विद्वान् सोमदेवसूरि ने अपने 'नीतिवाक्यामृतम्' ग्रन्थ में धर्म एवं वर्णव्यवस्था पर विशद प्रकाश डाला है । इस ग्रन्थ को वैदिक विद्वान् ध्यान से देखें तो वे इसे अपने सम्प्रदाय का ही समझ सकते हैं ।
अब देखना यह है कि वर्णव्यवस्था एवं जातिप्रथा के सम्बन्ध में प्राचीन जैन आगम, जैनदर्शन एवं अन्य जैन पुराणों का क्या अभिमत है ?
जैन आगम
उत्तरज्झयणं (उत्तराध्ययन) नामक आगम ग्रन्थ का भगवान् महावीर की वाणी से सीधा सम्बन्ध है । इसके पच्चीसवें अध्ययन (गाथासूत्र नम्बर ३१) में कहा है
परिसंवाद - २
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