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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं और इतने बड़े सम्राट के सामाजिक समता के आदर्श पर दाँतों तले उंगली दबा ली। मौलिक्य इस्लाम के इतिहास से इस कोटि के अनेक अन्य उदाहरण भी दिये जा सकते हैं।
यह सब सही, किन्तु मानना होगा कि इस्लाम दासता-प्रथा तथा तज्जन्य सामाजिक विषमता के धब्बे को धो नहीं सकता। वस्तुतः दासता-प्रथा का अस्तित्वमात्र सामाजिक समता में बाधक कहा जा सकता है। फ़ारसी के कविवरेण्य बेदिल का शेर है
इजाजे नीस्त दार्गे बन्दगी रा।
अगर बेश-म व गर कम आफ़रीदन्द ॥ अर्थाद् दासता चाहे कम हो या अधिक, उसके धब्बे का कोई उपचार नहीं। लगता है कि महाभारतकार को इस प्रकार की चेतना हो गयी थी और वह दासताप्रथा पर करारी चोट करते हुए लिखता है
मानुषा मानुषानेव दास-भावेन भुञ्जते । वध-बन्ध-निरोधेन कारयन्ति दिवानिशम् ॥' मनुष्या मानुषैरेव दासत्वमुपपादिताः।
वध-बन्ध-परिक्लेशैः क्लिश्यन्ते च पुनः पुनः॥२ शूद्र के प्रति वैदिकों के वैषम्यमूलक व्यवहार का प्रभाव बौद्धों पर भी पड़ा और जैसा कि हम जयन्तभट्ट के हवाले से दिखला आये हैं, वे भी स्पृश्यास्पृश्य के चक्कर में पड़ गये। बुद्ध ने भी ऋणी और राजसैनिक के साथ-साथ. दास की भी प्रव्रज्या वर्जित कर दी और दासों की दशा सुधारने की चिन्ता भी नहीं की । अन्यथा भी, बौद्धों में परमार्थ और व्यवहार अथवा सिद्धान्त और आचरण के बीच की खाई पर कटाक्ष करते हुए जयन्त लिखता है
नास्त्यात्मा फलभोगमात्रमथ च स्वर्गाय चैत्यार्चनं । संस्काराः क्षणिका, युगस्थितिभृतश् चैते विहाराः कृताः॥ सर्व शून्यमिदं वसूनि गुरवे देहीति चादिश्यते।
बौद्धानां चरितं किमन्यदियतो दम्भस्य भूमिः परा ॥ अर्थात् बौद्धों का दम्भ देखिए-वे कहते हैं कि आत्मा नहीं है, किन्तु स्वर्ग के लिए चैत्य-पूजा करते हैं, वे कहते हैं कि सारे संस्कार क्षणिक हैं, किन्तु युग-युग तक
१. म० भा०, शान्ति० २६२।३८-३९। ३. न्यायमञ्जरी, प्रमेय-प्रकरण, पृ० ३९ ।
२. तत्रैव १८०।३४-३५ ।
परिसंवाद-२
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