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भारतीय धर्म-दर्शन का स्वर सामाजिक समता अथवा विषमता ?
२५३ सूत्रकार ने शर्त यह लगायी है कि ऐसा तभी करना चाहिए जब विरोधी हीन वर्ण का हो (हीने परे त्यागः)', यदि दोनों पक्ष सम वर्ण के हों तो उनमें (परिस्थित्यनुसार) जो जिसको मार डाले वही ठीक (समे आत्मत्यागः परत्यागो वा)। हाँ, यदि विरोधी उच्चतर वर्ण का हो तो उसे कदापि नहीं मारना चाहिए, अपने ही को मरने देना चाहिए (विशिष्टे आत्मत्याग इति)।
शास्त्रों में दासता-प्रथा को मुक्त कण्ठ से स्वीकृति दी गयी है और दास केवल शुद्र ही नहीं होते । मनु ने सात प्रकार के दास बतलाये हैं
___ध्वजाहतो, भक्तदासो, गृहजः, क्रोत-दत्त्रिमौ।
पैत्रिको, दण्डदासश् च-सप्तैते दास-योनयः ॥ अर्थात् सङ्ग्राम में विजित, जीविकार्जन के लिए बना हुआ दास, दासी-पुत्र, क्रीत दास, दान में मिला हुआ दास, कुलक्रमागत दास, ऋण चुकाने के लिए दासता स्वीकार करने वाला दास-दासों की ये सात कोटियाँ हैं। नारद-स्मृति में १५ प्रकार के दासों की सूची प्राप्त होती है। यह सही है कि भारत में दासों के साथ उतना अमानुषिक व्यवहार नहीं होता था जितना यूनान, रोम, मिश्र आदि अन्य प्राचीन सभ्यताओं में होता था, तथापि सामाजिक समता और दासता में आत्यन्तिक विरोध का अपलाप असम्भव है, विशेषतः उस स्थिति में जब कि यह तथ्य है कि दासता-प्रथा प्राचीन भारत की अर्थव्यवस्था का आधार कभी नहीं बनी। जैसा हम लिख आये हैं, धर्म-शास्त्र का विधान है कि चाहे घर भर को भूखा रह जाना पड़े किन्तु दास को पहले भोजन देना चाहिए । कौटलीय अर्थशास्त्र में दासों को जितनी सुविधा दी गयी है, उतनी इस्लाम को छोड़कर अन्य किसी परम्परा ने नहीं दी है। दास के साथ सद्व्यवहार का जो मानदण्ड इस्लाम ने स्थापित किया है वह विश्व में बेजोड़ है। कहते हैं कि खलीफ़ः उमर शाम देश के शासक से सन्धि के लिए आमन्त्रित हुए और उन्होंने एक ऊँट पर सवार होकर एक उष्ट्रवाहक दास के साथ प्रस्थान किया, इस नियम के साथ कि मार्ग में एक मंज़िल (मील अथवा कीलोमीटर समझ लीजिए) तक वे ऊंट पर सवार रहते और दास ऊँट की नकेल थामकर चलता और दूसरी मंज़िल पर दास ऊँट की पीठ पर आ जाता और खलीफ़ः ऊँट की नकेल थाम लेते । बात यहाँ तक पहुँची कि उनके नगर के प्रवेश के समय ऊँट पर दास आसीन था और ऊँट की नकल खलीफ़ः के हाथ में थी। यह कौतुक शाम के शासक ने देखा १. तत्रैव ६।१।१४। २. तत्रैव ६।१।१५। ३. तत्रैव ६।१।१६ । ४. मनु० ८।४१५ ।
५. नारद-स्मृति, पञ्चम व्यवहार-पद, २२-२८ । ६. कौटलीय-अर्थशास्त्र, अधिकरण ३, अध्याय १३ (अथवा प्रकरण ६५)।
परिसंवाद-२
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