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भारतीय धर्म-दर्शन का स्वर सामाजिक समता अथवा विषमता ?
२५५ स्थित रहने वाले विहार बनाते हैं; वे कहते हैं कि सब कुछ शून्य है, किन्तु गुरु को धन देने का आदेश करते हैं।
शूद्र और श्रुति के श्रवणाध्ययन-वर्जन के प्रसङ्ग में हम एक विशेष तथ्य की ओर ध्यान आकृष्ट करना चाहते हैं जो प्रायः प्रसिद्ध नहीं है। एक परम्परा ऐसी भी है जो शूद्र के शास्त्राधिकार पर प्रतिबन्ध नहीं लगाती। महाभारत में ब्राह्मी सरस्वती, वेद-वाणी, चारों वर्गों के लिए बतलायी गयी है
इत्येते चतुरो वर्णा येषां ब्राह्मी सरस्वती।
विहिता ब्राह्मणा पूर्व लोभात् त्वज्ञानतां गताः॥' उसमें पञ्च महायज्ञों आदि में शूद्रों का भी अधिकार माना गया है
इत्येतैः कर्मभिर् व्यस्ता द्विजा वर्णान्तरं गताः ॥
धर्मो यज्ञक्रिया तेषां नित्यं न प्रतिषिध्यते ॥२ लघुविष्णु-स्मृति पञ्च यज्ञों का विधान शूद्र के लिए भी करती है
पञ्चयज्ञविधानं तु शूद्रस्यापि विधीयते ॥3 महाभारत में शूद्रों के शास्त्राधिकार की घोषणा कई अन्य स्थलों पर भी की गयी है
श्रावयेच् चतुरो वर्णान् कृत्वा ब्राह्ममग्रतः।
वेदस्याध्ययनं हीदं, तच् च कार्य महत् स्मृतम् ॥ सर्वे वर्णा-ब्राह्मणा ब्रह्मजाश् च सर्वे नित्यं व्याहरन्ते च ब्रह्म।
तत्त्वं शास्त्रं ब्रह्मबुद्धया ब्रबीमि, सर्व विश्वं ब्रह्म चैतत् समस्तम्॥५ महाभारत में यह भी सूचना है कि प्राचीन काल में ब्राह्मण चण्डालों को भी वेद सुनाया करते थे।
पुरा वेदान् ब्राह्मणा ग्राममध्ये घुष्टस्वरा वृषलान् श्रावयन्ति ।। जैमिनि से प्राचीनतर-मीमांसासूत्रकार बादरि वैदिक कर्म में शूद्र का पूरा अधिकार मानते थे, ऐसी सूचना जैमिनि से प्राप्त होती है। भारद्वाज-श्रौतसूत्र के अनुसार शूद्र भी तीनों वैदिक अग्नियाँ जला सकता है । अहिर्बुध्न्य-संहिता चारों वर्गों को वेद में अधिकार देती है
१. म० भा०, शान्ति १८८।१५ ।। ३. लघुविष्णु-स्मृति ५।९। ५. तत्रैव ३१८.८९ । ७. मीमांसा-सूत्र ६.१.७.२७ ।
२. तत्रैव १८८।१४ । ४. म० मा०, शान्ति ३२७।४९। , ६. तत्रैव अनुशासन० ९४.११ । ८. भारद्वाज-श्रौतसूत्र ५.२.८ ।
परिसंवाद-२
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