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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएँ वस्तुतः ऐसी परम्परा वैदिक काल में ही प्रतिष्ठित हो चुकी थी। उदाहरणार्थ ऋग्वेद में उषा की उपमा उस नारी से दी गई है, जो भ्राता के अभाव में पिता के धन को प्राप्त करती है । (ऋग्वेद १११२४)
स्त्रियाँ राज्य-शासन की भी अधिकारिणी हुआ करती थीं। रामायण में राम के वन गमन की बात उपस्थित होने पर सीता को सिंहासन देने की बात आई है।' महाभारत में भीष्म ने युधिष्ठिर को सलाह दी है कि-युद्ध में मृत राजाओं को यदि कोई पुत्र न हो तो उनकी पुत्रियों को सिंहासन पर अभिषिक्त कर दिया जाय । रघुवंश के अनुसार अग्निवर्ष की मृत्यु के बाद उसकी पटरानी सिंहासन पर बैठी थीं। शूद्रों की स्थिति
___ संसार को नियमित एवं सन्तुलित रूप से चलाने के लिये वैदिक साहित्य के आरम्भिक काल से ही समूचे समाज को चार वर्गों या वर्गों में विभक्त पाया जाता है। इन वर्गों की उत्पत्ति की कल्पना वैदिक साहित्य के कुछ विलक्षण ढंग से ही की गई है । इसके अनुसार आदि पुरुष विष्णु के मुख से ब्राह्मणों, बाहुओं से क्षत्रियों, जाँघों से वैश्यों तथा पैर से शूद्रों की उत्पत्ति हुई है। वर्णों की उत्पत्ति विषयक यह कल्पना संहिताकाल से आरम्भ कर स्मृति-ग्रन्थों तथा पुराणों के काल तक अक्षुण्ण रूप से प्रवाहित होती चली आई है। समग्र संस्कृत-साहित्य वर्गों की उत्पत्तिविषयक इसी विचारधारा से उद्वेलित है ।
शूद्र समाज का वह निकृष्ट वर्ग माना जाता रहा है, जिसका कर्तव्य था द्विज अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य की परिचर्या । परिचर्या के लिये ही वह प्रजापति के द्वारा रचा गया है। यही उसका शास्त्रविहित कर्भ है। धनसंचय का अधिकार शूद्र को नहीं था। धार्मिक कार्य के सम्पादन में भी वह स्वतन्त्र न था। इसके लिये उसे राजा से आज्ञा प्राप्त करना आवश्यक था। स्वामी के द्वारा धारण कर छोड़ी गई वस्तुएँ ही उसका धन था। शूद्र का अपना कोई धन नहीं था। उसके सारे धन पर उसके स्वामी का ही अधिकार था। यह स्वामी का ही पावन कर्तव्य था कि वह अपनी शुश्रूषा में लगे शूद्र के समूचे परिवार के भरण-पोषण की व्यवस्था करे।"
३. देखिये-१९।५५ ।
१. देखिये-२।३७।३८ । २. देखिये-१२।३२।२३। ४. देखिये-मनु० २८७ । तथा भागवत ११।५।२ । ५. देखिये-महाभारत, शान्तिपर्व, ६०।२८-३७ ।
परिसंवाद-२
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