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प्राचीन संस्कृत-साहित्य में मानव समता
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शूद्र एवं शिक्षा
शूद्र वेद वहिष्कृत था। उसे वेद पढ़ने का अधिकार बिलकुल प्राप्त न था। वह इतिहास पुराण आदि सुन सकता था। व्यासासन पर बैठ कर इतिहास-पुराण आदि की व्याख्या करने का अधिकार शूद्र को नहीं प्राप्त था। यतः वैदिक मन्त्रों के उच्चारण का अधिकार शूद्र को प्राप्त न था, अतः वह वैदिक यज्ञों को भी करने का अधिकारी न था। शूद्र की नियमित शिक्षा का कहीं विस्तृत निर्देश उपलब्ध नहीं होता । वह हस्तशिल्प आदि की शिक्षा किसी गुरु से ले सकता था। किन्तु कोई भी उच्च वर्ण का व्यक्ति किसी शूद्र को किसी भी तरह की शिक्षा के लिये अपना शिष्य नहीं बनाता था। अपने जमाने के बेजोड़ धनुर्धर, धनुर्विद्या के परमाचार्य आचार्य द्रोण ब्राह्मण थे। उन्होंने धनुर्विद्या की शिक्षा लेने के लिये श्रद्धा के साथ अपने पास आये हुए भील कुमार एकलव्य को इसलिये अस्वीकार कर दिया था, क्योंकि वह शूद्र था। वेदों, उपनिषदों तथा स्मृतियों आदि के अध्ययन में शूद्र का अधिकार न था।
समूचे संस्कृत-साहित्य में, जहाँ तक मुझे ज्ञात है, एक भी शूद्र आचार्य का पता नहीं चलता, जिससे शिष्य-गण विद्याध्ययन करते रहे हों। हाँ मनुस्मृति में अत्यन्त क्षीण यह संकेत अवश्य मिलता है कि जब तब जहाँ-तहाँ कोई अध्यात्मतत्त्वोपदेष्टा शूद्र हो जाता है, जिससे उच्च वर्ण के लोगों को भी कल्याणकारी ज्ञान ले लेना चाहिये । किन्तु यह केवल धर्म व्यवस्थामात्र प्रतीत होती है। शूद्र का यज्ञ एवं देवपूजा सम्बन्धी अधिकार
आरम्भ में शूद्रों के यज्ञ एवं देवपूजा आदि के विषय में कुछ अधिक कठोर नियम न थे। ब्राह्मण क्षत्रिय एवं वैश्य की भाँति शूद्र भी यज्ञ कर अपने लिये स्वर्ग की सीढ़ी का निर्माण कर सकता था, देवपूजा कर मुक्ति के द्वार तक पहुँच सकता था। बादरि नामक एक प्राचीन आचार्य ने लिखा है कि शूद्र भी यज्ञ कर सकते हैं। भारद्वाजश्रौतसूत्र ने कुछ प्राचीन आचार्यों का मत प्रकाशित किया है, जिसके अनुसार शूद्र भी तीनों वैदिक अग्नि जलाकर अपने त्रिविध तापों का उपशमन कर सकते थे। महाभारत के अनुसार तीनों वर्गों की भाँति शूद्र भी यज्ञ कर सकता था। किन्तु उसे स्वाहाकार, वषट्कार तथा वैदिक मन्त्रों के प्रयोग का अधिकार प्राप्त न था । वह यज्ञ (पाकयज्ञ) की समाप्ति पर यथेच्छ दक्षिणा भी दे सकता था।
१. देखिये-मनु० २।२३८ और उसपर कुल्लूकभट्ट को टीका । २. 'निमित्तार्थेन वादरिस्तस्मा सर्वाधिकारं स्यात् ।' जैमिनी १।३।२७ । ३. भारद्वाजश्रौतसूत्र ५।२।८ ।
परिसंवाद-२
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